Thursday, September 27, 2007

विभाजन का दंश







मेरे एक चिट्ठाकार मित्र अनिल रघुराज जी ने एक टिप्पणी की थी कि “यह बडी विडंबना है कि विभाजन के 60 वर्षों बाद भी हमारे दिलोदिमाग में विभाजन बरकरार है। क्या विभाजन के इस घाव को किसी तरह भरा नहीं जा सकता?” मैं भी सोचता हूं कि वास्तव में 14-15 अगस्त 1947 मे हमने आज़ादी पाई या फिर विभाजन। अंग्रेज़ों ने एक झटके में ही हिंदुस्तान की गंगा-जमुना संस्कृति को दूध की तरह फाड़ डाला। यह वह समय था जब एक उपलब्धि और एक दुर्घटना साथ घटी थी। इतिहास में शायद ऐसा पहली और आखिरी बार हुआ था। उपलब्धि थी स्वतंत्रता की और दुर्घटना थी विभाजन की। ऐसा नहीं था कि यह दुनिया का पहला विभाजन था। इससे पहले भी कुछ देशों के विभाजन हुये थे परंतु यह विभाजन युग की सबसे बडी त्रासदी थी क्यों कि यह विभाजन महज़ ज़मीन या देश का विभाजन नहीं था। बल्कि यह विभाजन था लोगों का, उस हवा का जो इस ज़मीन से उस ज़मीन की तरफ चलती है, उन नदियों का जो इन दोनो देशों की सीमाओं पर बहती हैं, पंछियों का, दिलों का और संस्कृतियों का। यह बंटवारा था इकबाल और मीर का, टैगोर और नज़रूल इस्लाम का, राम और रहीम का। हमारी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, संगीत हर चीज़ को अंग्रेज़ अपनी तेज़ धार वाली दिमागी तलवार से काट कर चले गये। और साथ मे दे गये एक ऐसा घाव जिसे भरने में सदियां लग जाएंगी और अगर यह घाव भर भी गया तो अपने निशान ज़रूर छोड़ जायेगा। हमारी आज़ादी का संघर्ष जितना रक्तमय रहा है उससे कहीं अधिक रक्तमय रही है हमारी आज़ादी। उस समय विभाजन की त्रासदी आज़ादी के उल्लास पर भारी थी, आज भी है और हमेशा रहेगी। क्यों कि उस विभाजन की छुरी सिर्फ ज़मीन पर नही चली बल्कि दिलों पर चली है। और उस विभाजन की कसक आज भी महसूस की जा रही है। और अंग्रेज़ो द्वारा दिये गये इस दंश का ज़हर आज भी दोनों देशों की रगों मे दौड़ रहा है।

 

© Vikas Parihar | vikas