tag:blogger.com,1999:blog-83791687611656395692024-03-19T17:44:22.309+05:30इस हम्माम में सब........!विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.comBlogger31125tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-19123554225525358062008-05-30T03:39:00.005+05:302008-05-30T14:23:39.399+05:30भड़ास और मोहल्ले के बीच पिसा बेचारा हम्माम<blockquote><em><strong><span style="color:#cc33cc;">[पूर्व सूचना :- हालांकि मेरे लेख न तो किसी व्यक्ति विशेष से प्रभावित हैं और न ही किसी विचारधारा विशेष से। यदि मेरे लेखों से किसी व्यक्ति विशेष के मन को कोई चोट पहुंचती है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं]</span></strong></em></blockquote><br /><br />इस से पिछली वाली पोस्ट पर मैंने चिट्ठेकारी के उद्देश्य को रेखांकित करने की कोशिश की थी परंतु हमारे कुछ सुधीजनों ने उसे <a href="http://bhadas.blogspot.com/">भड़ास</a> या यशवंत जी की हिमायती पोस्ट समझ कर उसकी घोर भत्सर्ना की। कुछ लोगों ने अपने नाम से टिप्पणी की तो एक भाई ने बेनाम टिप्पणी डाली। अविनाश भाई का फोन आया उनसे हालांकि पहली बार बात हुई परंतु ऐसा बिल्कुल नहीं लगा कि पहली बार बात हो रही है। उनसे काफी लम्बी और गहन चर्चा हुई। तो उस से समझ आया कि मेरी पोस्ट को कुछ गलत दिशा दी गई है या कोई सम्वादहीनता है जिसने <a href="http://mohalla.blogspot.com/">मोहल्ले</a> के कुछ साथियों को ऐसी टिप्पणियां करने पर मजबूर कर दिया है।<br />भैया वैसे मेरी आदत नहीं है किसी तरह की सफाई देने की। और न ही मेरी चाह है किसि तरह की टिप्पणी की। मैं तो बस अपना काम करना जानता हूं और अपने चिट्ठे को विकास से जुड़े मुद्दों को उठाने और उन पर अपने विचारों को व्यक्त करने का माध्यम मानता हूं। और अपने इस आदर्श पर मैं तब से अडिग हूं जब से मैने चिट्ठाकारी शुरू की है। मैं यह नहीं जानता कि अविनाश जी की बात में कितनी सच्चाई है या यशवंत जी कितना झूठ बोल रहे हैं। जहां तक मेरी जानकारी है या मेरी समझ है उसके अनुसार मेरा मानना है कि यदि हम किसी एक व्यक्ति की सहायता करना चाहते हैं तो हम उसकी समस्या को सुलझाने की दिशा मे कार्य कार सकते हैं परंतु यदि हमे समाज की समस्या का समाधान करना है तो हमे एक व्यक्ति की व्यक्तिगत समस्या को पूरे समाज की समस्या का रूप देना पड़ेगा। और उसे पूरे युग की पीड़ा के रूप मे परिलक्षित करना पड़ेगा। यदि मैं लिखूंगा या यदि मैं आवाज़ उठाऊंगा तो मैं उस व्यवस्था के विरुद्ध उठाऊंगा जिसके कारण एक इंसान एक स्त्री की अस्मिता पर झपट्टा मारने की हिम्मत जुटा लेता है।<br />अब आते हैं मुद्दे की बात पर तो भाई एक बात ज़रूर कहूंगा कि कुछ लोग सामुदायिक ब्लॉग्स बनाते हैं उस पर भदेसपन की नाम पर गाली गलौच लिखते हैं और यह सफाई देते हैं कि पूरे समाज मे दी जाती हैं भाई और सभी इनसे भली भांति परिचित हैं। सही भी है परा मैं एक बात पूछता हूं कि हर माता-पिता जानते हैं कि सुहाग रात को क्या होता है तो क्या सिर्फ इसी कारण सुहाग रात को सार्वजनिक रूप से मनाया जा सकता है? और मान लिया कि गालीयां देना इतना ही ज़रूरी है तो फिर सभी गालियां सिर्फ स्त्रियों के कुछ अंग विशेष से सम्बंधित क्यों हैं पुरुषों के अंगों से संबंधित गालियों का भी अविष्कार किया जाए और उन्हे प्रयोग में लाया जाए। परंतु ऐसा होता नहीं है। या तो पुरुषों के अंग इस लायक नहीं हैं या फिर सृजनात्मकता का आभाव है। और दूसरी तरफ हम एक बलात्कार की कोशिश के विरुद्ध तो आवाज़ उठाते हैं परंतु दिल्ली मे होने वाले कितने ही पंजीबद्ध बलात्कार प्रकरणों की तरफ और उससे भी ज़्यादा अपंजीबद्ध प्रकरणों की तरफ कभी कोई ध्यान नहीं दिया जाता। और साथ ही साथ यह कहा जाता है कि यह ना तो नम्बर की लड़ाई है और न ही व्यक्तिगत। हिन्दुस्तान में एन.एच.आर.सी. की रिपोर्ट के अनुसार सन 2006 में 19,384 बलात्कार और 36,617 प्रताड़ना के मामले पंजीबद्ध किए गए। इसमें से 31.1% मामले दिल्ली के हैं। और न जाने ऐसे कितने मामले हैं जिनका पंजीकरण नहीं कराया गया। तो उस समय हमारे तथाकथित बड़े बड़े पत्रकारों की पत्रकारिता और बड़े-बड़े लेखको की लेखनी को जंग लग जाती हैं। “नहीं नहीं हम इन मुद्दों या विकास से जुड़े मुद्दों पर नहीं लिखेंगा नहीं तो हमारी पोस्ट पर टिप्पणियां नहीं मिलेंगी। हमारे ब्लॉग पर हिट्स नहीं आयेंगे।“ हमें तो हमारे ब्लॉग पर हिट्स बढ़ाने हैं। टिप्पणियों की संख्या बढ़ानी है। बस यही चलता रहता है। और अब तो एक और कार्यक्रम शुरू हो गया है अपने सामुदायिक ब्लॉग बनाकर अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर छींटाकशी का एक शो चलाया जाए थोड़ी सी सनसनी पैदा होगी। थोड़ा स तड़का लगेगा। थोड़ी सी पब्लिसिटी होगी। और फिर कुछ दिनों के हंगामे के बाद सब कुछ चला जाएगा ठंडे बस्ते में।<br /><br /><strong><strong><em><span style="color:#666600;">[कहना तो बहुत कुछ है परंतु आज के लिए बस इतना ही। बाकी अगली बार]<br /></span><span style="color:#33ccff;">पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त..................</span> </em></strong></strong>विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-88477717016530869412008-05-29T01:39:00.003+05:302008-05-29T01:48:08.073+05:30मोहल्ले में निकल रही भड़ास और भड़ास बना मोहल्लाबहुत दिनों बाद अपने एक मित्र के बताने पर भड़ास पर पहुंचा तो देखता हूं कि <a href="http://www.bhadas.blogspot.com/"><strong>भड़ास</strong></a> में एक मोहल्ला बन गया है और <a href="http://www.mohalla.blogspot.com/"><strong>मोहल्ले</strong></a> में भड़ास निकल रही है। बात आगे कहने से पहले यशवंत जी एवं सभी बंधुओं से क्षमा चाहता हूं। यदि पहली बार पढने में मेरी कही गई बात गलत या बुरी लगे तो अनुरोध है कि इस पोस्ट को दोबारा पढ़ें और शांति से आत्ममंथन करे। <br /> सबसे पहली बात तो यह है कि भड़ास एक सामुदायिक ब्लॉग है जिसका उद्देश्य पूरे देश के पत्रकारों और आम जन को अपने मन की भड़ास और कुंठाओं को को निकालने का एक मंच प्रदान करना है। हम भड़ास पर बात करते हैं उन सभी गलत बातों की जो समाज में या फिर पत्रकारिता जगत में चल रही हैं। तो फिर नम्बर वन या नम्बर टू वाली बात ही नहीं उठती। और अगर हम लोग ही इस होड़ा-होड़ी में लग जायेंगे तो फिर सनसनी को खबर बना कर प्रस्तुत कर रहे और टी.आर.पी. की अन्धी दौड़ में लगे हुए खबरिया चैनलों में क्या फर्क़ रह जाएगा? और अगर हम ऐसा करते हैं तो कहीं न कहीं हम अपने उद्देश्य से तो भटकते ही हैं साथ ही साथ भड़ास ने जिस पुण्यकर्म के लिए जन्म लिया है उसे भी दूषित करते हैं। <br /> एक तरफ तो हम ब्लॉगिंग को भविष्य के एक सशक्त वैकल्पिक मीडिया के रूप में प्रस्तुत करते हैं और दूसरी तरफ ऐसी छींटाकशी करते हैं। और रही बात नम्बर वन की तो चाहे आज खबरिया चैनल कितनी भी टी.आर.पी. कमा लें पर खबर के मामले में दूरदर्शन की बराबरी नहीं कर सकते क्यों कि आज भी दूरदर्शन “अमिताभ बच्चन के पैदल सिद्धिविनायक मन्दिर जाने” या फिर “मल्लिका शेरावत या राखी सावंत की नंगी टांगों” को मुख्य खबर बना कर नहीं दिखाता। वह आज भी अपने मापदंण्डो पर तटस्थ है। इसीलिये उसकी विश्वस्नीयता आज भी बरकरार है।<br /> मैं यह नहीं कहता कि व्यवसायिक प्रतिद्वन्दिता नही होनी चाहिये। वह भी एक समग्र विकास के लिए बहुत ज़रूरी है परंतु यह भी ध्यान रखा जाए कि यह व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता कहीं दुश्मनी में न बदल जाए। और अगर बदले भी तो कम से कम बशीर बद्र साहब की उन लाइनों को तो अवश्य याद रखा जाए जो कहती हैं: दुश्मनी जम के करो पर यह गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिन्दा न हों। <br />अभी के लिए बस इतना ही लिख रहा हूं आगे इस मसले पर और भी बहुत कुछ है लिखने को पर वो बाद में लिखूंगा।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-74239364458754812592008-03-31T19:37:00.003+05:302008-04-19T16:40:55.078+05:30भटे भाजी की तरह पनप रहे मीडिया स्कूल और कॉलेजहिंदी दैनिक हिन्दुस्तान में डा. हेमंत जोशी का पत्रकारिता शिक्षा पर एक यथार्थपरक विश्लेषण प्रकाशित हुआ है। इस विश्लेषण में उन्होंने बिल्कुल सही लिखा है कि पत्रकारिता आज पलक झपकते ही लोगों को ख्याति, पैसा और हैसियत बनाने की सबसे उत्तम सीढ़ी बन गई है। डा. जोशी ने पत्रकारिता पेशे में जाने वाले कई युवक-युवतियां का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि वे देश-दुनिया के बारे में जानना तो दूर, सामान्य ज्ञान में भी कमजोर होते हैं। डा. जोशी का कहना है कि पत्रकारिता के पेशे के प्रति युवा पीढ़ी के इस आकर्षण का यह परिणाम हुआ है कि अनेक विश्वविद्यालयों ने आवश्यक सुविधाओं और प्रशिक्षित अध्यापकों के बिना ही पत्रकारिता के पाठ्यक्रम शुरु कर दिए। कई ऐसे लोग, जिनके पास पूँजी थी या जगह थी या मीडिया में थोड़ी-बहुत पहुँच थी, वह भी कमर कस के इस मैदान में आ गए और लोगों से अनाप-शनाप फीस ले कर उन्हें पत्रकार या टीवी एंकर बनाने का प्रलोभन देने लगे।<br />डा. हेमंत जोशी का पत्रकारिता शिक्षा पर किया गया विश्लेषण बिल्कुल सटीक है। जबलपुर सहित पूरे मध्यप्रदेश में वर्तमान में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थान, जिस प्रकार कुकरमुत्ते की तरह फैलना शुरु हुए हैं, वह आश्चर्यजनक है। बिना किसी प्रशिक्षित अध्यापकों के जिस प्रकार पत्रकारिता शिक्षा दी जा रही है, वह इस प्रकार के संस्थानों को मान्यता देने वाले विश्वविद्यालयों की ईमानदारी पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। पत्रकारिता शिक्षा के संस्थान युवक-युवतियों को राजदीप सरदेसाई, विनोद दुआ, पुण्यप्रसून वाजपेयी, बरखा दत्त से लेकर स्थानीय रोल मॉडलों का उदाहरण देते हुए, उनके समकक्ष या उससे अधिक ऊंचाई तक पहुँचाने का प्रलोभन देते हैं। इस प्रकार के प्रलोभन से गांव के साथ-साथ शहर के स्नातक और पोस्ट ग्रेजुएट विद्यार्थी दिग्भर्मित हो जाते हैं।<br />मुझे याद है कि एम. काम उत्तीर्ण एक सीधे साधे विद्यार्थी को जबलपुर के एक मीडिया स्कूल के संचालक ने सब्ज-बाग दिखा कर पब्लिक रिलेशन्स के कोर्स में एडमिशन करवा दिया। इसके लिए उस विद्यार्थी ने यहां वहां से जुटा कर बड़ी रकम फीस के रुप में दी। आज लगभग चार वर्ष हो रहे हैं, वह विद्यार्थी आज भी सड़कों पर ही घूम रहा है। इस विद्यार्थी ने जब मीडिया स्कूल में एडमिशन लिया, तब वहां कोई भी पोस्ट ग्रेजुएट स्तर में अध्यापन करने वाला अध्यापक नहीं था और न ही आज है। इस प्रकार के तथाकथित मीडिया स्कूल और संस्थान वर्ष भर विद्यार्थियों से लंबी-चौड़ी रकम ले कर पत्रकारिता शिक्षा के नाम पर बहलाते और फुसलाते रहते हैं। साल भर विद्यार्थी भी इस मुगालते में रहता है कि बस कुछ दिन में ही वह एक बड़ा पत्रकार या टीवी जर्नलिस्ट बनने वाला है। जब हकीकत सामने आती है, तब वह सिर्फ पछताता ही है। बैचलर आफ जर्नलिज्म जैसे कोर्स में अध्यापकों का वेतन देने से बचने के लिए पूरा कोर्स साल भर के स्थान पर दो-तीन महीने में खत्म कर दिया जाता है और शेष समय में संस्थान का संचालक स्वयं ही पत्रकारिता का व्यवहारिक व सैद्घांतिक ज्ञान बांटने लगता है।<br />जबलपुर में आजकल टीवी के साथ-साथ रेडियो जॉकी के फर्जी कोर्स का धंधा भी पनपना शुरु हो गया है। इन कोर्स के लिए नौजवानों के साथ अधेड़ भी रुचि लेने लगे हैं। एफएम के इस दौर में प्रत्येक व्यक्ति को महसूस होने लगा है कि उसमें शायद एक अच्छे रेडियो जॉकी या एनाउंसर बनने की क्षमता है। लोगों के इसी भ्रम का फायदा उठा कर जबलपुर के मीडिया स्कूल और संस्थान एक-दो महीने के क्रेश कोर्स संचालित कर रहे हैं। इसी प्रकार के एक मीडिया स्कूल में जाने पर मैंने देखा कि वहां अधिकांश संख्या अधेड़ महिलाओं की थी, जो कि रेडियो जॉकी बनने की तमन्ना से क्रेश कोर्स कर रही थीं। उनके अलावा अन्य विद्यार्थी 'स' और 'श' का उच्चारण में फर्क नहीं कर पा रहे थे। मुन्ना भाई में रेडियो जॉकी की भूमिका निभाने वाली विद्या बालन की "गुड मार्निंग मुंबई" की तर्ज पर "गुड मार्निंग जबलपुर" की लाइनों को दोहरा कर सबको इस बात की अनुभूति करवाई जा रही थी कि वे ही जबलपुर की विद्या बालन हैं। सभी विद्यार्थी अपनी टेप की गई आवाज सुन-सुन कर खुश हो रहे थे।<br />दरअसल मीडिया स्कूल और संस्थानों में इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कृछ नहीं रहता है। एक अलमारी में 10-20 किताबें रख कर विद्यार्थियों को इस भ्रम में रखा जाता है कि उन्हें किताबें खरीदने की जरूरत नहीं होगी। परीक्षाओं के समय विद्यार्थियों को जब पुस्तकें नहीं मिलती है, तब उन्हें पत्रकारिता शिक्षा का सच समझ में आता है।<br />इस संबंध में वर्षों से विश्वविद्यालय में संचालित होने वाले पत्रकारिता विभागों की स्थिति कुछ अच्छी नहीं हैं। यहां अध्यापन करने वाले शिक्षक स्वयं भ्रम के शिकार हैं। उन्हें पत्रकारिता की नई प्रवृत्तियों की जानकारी नहीं है। किताबी ज्ञान तो बांट दिया जाता है, लेकिन व्यवहारिक शिक्षा देने में विश्वविद्यालय के अधिकांश अध्यापक असफल रहते हैं, क्योंकि उनका स्वयं का व्यवहारिक अनुभव शून्य ही रहता है। पत्रकारिता शिक्षा के संबंध में यह बात भी महसूस की गई है कि अध्यापक पत्रकारिता के व्यवहारिक पक्ष को समझा नहीं पाते हैं और वहीं प्रोफेशनल पत्रकार अपने पेशे का ज्ञान तो दे सकते हैं, लेकिन वे क्लास रूम में एक अच्छे शिक्षक की भूमिका नहीं निभा पाते हैं। इस दृष्टि से पत्रकारिता प्रशिक्षण का मानकीकरण होना चाहिए, जिससे पत्रकारिता शिक्षा और प्रशिक्षण का स्तर तो ऊंचा हो और अच्छी-खासी फीस लेने पर भी नियंत्रण लगे।<br /> <a href="http://jabalpur-chaupal.blogspot.com/2008/03/blog-post_19.html">लेखक:-गुलूश (जबलपुर चौपाल से साभार) </a>विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-67744290931260657282007-11-19T17:16:00.000+05:302007-11-19T21:50:24.006+05:30पत्रकार या बेकारकिसी ने कहा है कि :-<br /><span style="color:#ff0000;"><strong>खींचो न तीरो कमान न तलवार निकालो।<br />जब तोप मुकाबिल हो तब अखबार निकालो।</strong></span><br />अखबार की ताकत को बयाँ करने वाला यह जुमला शायद आज बेकार हो गया है या फिर शायद बदलते समय के साथ इस शेर और अखबारो की शक्ति क्षीण पड़ गई है। एक समय अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम माने जाने वाले इन अखबारों की स्थिति आज ऐसी हो गई है य कर दी गई है कि इन्हे भी अपनी लेखनी और कलम की शक्ति का प्रयोग करने की जगह ज्ञापन सौंपने और विरोधात्मक रैली निकालने जैसे दूसरे दर्जे के साधन अपनाने पड़ रहे हैं। हाल ही में समाचार पत्रों को नए संस्कार देने वाली जबलपुर नगर मे एक ऐसी घटना घटी जो यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना कमज़ोर हो गया है कि हवा का एक कम्ज़ोर झौका उसे आरम से हिला दे? जिस देश में पत्रकारों के लिए यह कहा जाता है कि:-<br /><span style="color:#ff0000;"><strong>शक्ल से देखने में यह न गोरे हैं न काले हैं।<br />न इनके पास पिस्टल हैं न इनके पास भाले हैं।<br />तबीयत से हैं यह बेफिक्र फाकामस्त जीवन में,<br />कलम के और कागज़ के धनी अखबार वाले हैं।</strong></span><br />उसी देश में पत्रकारों की कलम इतनी भोथरी हो गई है कि उन्हें ज्ञापन सौंपने और विरोधात्मक रैली निकालने जैसे दोयम दर्जे के हथकण्डे अपनाने पड़ रहे हैं। यह बात जितनी हास्यास्पद है उतनी शर्मनाक भी। स्वयं इस क्षेत्र से जुड़े होने के कारण मुझे भी इस बात का क्षोभ होता है कि दूसरों के अधिकारों के हनन के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले माध्यम को आज अपने अधिकारों की रक्षा करना मुश्किल पड़ रहा है। और आज यह बात कहने में थोड़ा दुख तो होता है परंतु कोई हिचक नहीं होती कि सर्वप्रथम मिशन के रूप मे प्रारंभ होने वाली यह विधा धीरे-धीरे प्रोफेशन में बदली उसके बाद सेंसेशन मे तब्दील हुई। यहाँ तक तो ठीक था परंतु पर आत्मा में कहीं न कहीं एक गहरी चोट लगती है कि अब वह धीरे-धीरे कमीशन में बदल रही हैं। कभी कभी यह लगता है कि यह विधा कहीं अपनी चिता अपने ही हांथों से तो तैयार नहीं कर रही? परंतु यहं भी उम्मीद की एक किरण मुझे इसमे भी दिखाई देती है कि हो सकता है कि अपनी हाथों से तैयार की गई चिता मैं नष्ट होने के बाद यह विधा एक बार पुनः जन्म लेगी स्वयं की अस्थियों से फीनिक्स पक्षी की तरह।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-36703742635120833572007-10-23T15:11:00.000+05:302007-10-23T15:46:43.859+05:30व्यर्थ गंवाया अर्थहालाँकि नवदुर्गा उत्सव और दशहरे के सभी उत्सव खत्म हो चुके है परंतु उंकी खुमारी अभी भी सभी लोगों पर छाई ही होगी। अच्छा है कम से कम इन कुछ दिनों मे इतने सारे आयोजनो के माध्यम से लोग ईश्वर को उसके अस्तित्व का अह्सास दिला देते हैं। इन दिनो आयोजनों के नाम पर खूब पैसा इकट्ठा किया जाता है और उसे सजावट और विभिन्न कार्यक्रमों के भव्य आयोजनो के लिए खर्च भी किया जाता है। इन कुछ दिनों में शायद वे सभी लोग आस्तिक हो जाते हैं जिनका ईश्वर से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। ये लोग वर्ष भर तो गरीबों का खून चूस-चूस कर पैसा इकट्ठा करते हैं और इन कुछ दिनों में दिल खोल कर इन आयोजनों मे व्यय भी करते हैं। ऐसा लगता है जैसे भगवान को भी घूस दे रहे हों।<br /> हिन्दुस्तान के अन्दर ऐसी कई मान्यताएं हैं जो मुझे अक्सर हास्यास्पद लगती हैं। और इन मान्यताओं का अनुशरण न करने के कारण मुझे कई बार कई प्रकार की यातनाओं का भी सामना करना पड़ता है। यहाँ तक की मेरे परिवार वाले भी मुझे नास्तिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। मेरा मन कभी भी यह स्वीकार नहीं कर पाता कि भगवान सिर्फ मन्दिर में ही है क्यों कि मैं तो बचपन से यही सुनता आया हूं कि वह सर्वव्यापी है, इसीलिए मैं मन्दिर नहीं जाता। और ऐसे ही न जाने कितनी ही मान्यताएं हैं जिन्हें मैं आस्था का विषय न मानकर सिर्फ ढकोसलों की श्रेणी में रखता हूं। <br />चलिए हम लोग विषय परिवर्तन न कर के सीधे अपने मूल विषय पर आते हैं। इस बार नवदुर्गा महोत्सव के समय हुए विभिन्न आयोजनों मे हुए व्यय के आँकड़े जब मेरे सामने आए तो एक तरफ तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ वहीं दूसरी तरफ दुःख भी। यदि जबलपुर शहर मात्र में हुए व्यय को ही लें तो इन दस दिनो में कुल मिला कर लगभग 25-30 लाख रुपयों का व्यय किया गया। एक ऐसा शहर जिसकी कुल आबादी लगभग 20 लाख है उसने नवदुर्गा महोत्सव मे 25-30 लाख रुपए खर्च किए। अब यदि इसी बात का दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात किया जाए तो यहाँ की कुल आबादी का 20% अर्थात लगभग4 लाख लोग घोषित रूप से गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें दोनो वक़्त ठीक ढंग से पर्याप्त मात्रा में भोजन भी नसीब नहीं होता। अब यदि इस धन को लोग ऐसे आयोजनों की भव्यता में खर्च न कर के इन लोगों के उन्नयन मे लगाते तो मेरा ख्याल है की हम अपने आप को ईश्वर के करीब ले जाने में अधिक सफल होते। किसी ने ऐसे ही नहीं कहा है कि :-<br />मस्ज़िद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,<br />किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-60808026289975338262007-10-16T02:33:00.000+05:302007-10-16T03:36:36.412+05:30उसकी टी.आर.पी मेरी टी.आर.पी से ज़्यादा कैसे?<span style="color:#ff0000;">(पढ़ने वालों से अनुरोध है कि कृपया इस पोस्ट को दिल पर न लगाएं। यह मात्र एक हँसी ठठ्ठा है।)</span><br />भाई आज-कल एक अजीब सी लहर चली है टी।आर।पी। की। चैनलों वाले हमेशा इसी उहा पोह में लगे रहते हैं कि अपने विपक्षी चैनल के दर्शक कैट्से काटे जाएं। पेपर वाले सोचते हैं कि दूसरे के पाठक कैसे तोड़े जाएं। एफ।एम. वाले सोचते हैं की दूसरे के श्रोता कैसे छीने जाएं। जबरदस्त प्रतियोग्यता के इस दौर में हर संचार माध्यम को जैसे दस्त लग गए हों। कुपच हो गई हो।किसी और को हँसते खेलते खिलखिलाते देखना उन्हें पचता ही नहीं है। और यह कुपच भी ऐसी है कि यहाँ डॉक्टरों और हकीमों का कोई भी नुस्खा काम नही कर सकता। भाई ये अच्ची बात नईं है। जब सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हो तो सभी को मिल बाँट कर खाना चाहिए। पर अब वो बात कहाँ। चलो भाई मान भी लिया जाए कि प्रतिद्वन्दिता है तो कम से कम उसकी कोई सीमा तो होनी चाहिए। भाई प्रतिद्वन्दिता में जब नैतिकता का समावेश हो तो अच्छा लगता है। पर यहाँ तो नैतिकता को एक दम दरकिनार कर दिया गया है।<br /> अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए कुछ चैनल भूत-प्रेतों का सहारा ले रहे हैं। बेचारे भूतों को ब्रेकिंग न्यूज़ बना कर दिखा रहे हैं। अरे यार जब एक चैनल में काम करने वाले इतने सारे ज़िन्दा कर्मचारी कुछ नहीं कर पा रहे तो ये बेचारे मरे हुए क्या कर लेंगे? हमें बस जे बात समझ नईं आती। और तो और एक बात और सोचने लायक है कि जब से धड़ाधड़ चैनलों की बाढ़ आई है तभी से एम.एम.एस. स्केंडलों की भी बाढ़ आई है। अब किसी लड़की को उसके अंतरंग पलों में धोखा दे कर अगर किसी ने एक एम.एम.एस बना दिया तो ये चैनल वाले उसी क्लिपिंग को दिन भर मे 120 बार दिखा कर तो वैसे ही छिनाल बना देते हैं। हद हो गई यार। अरे भैया मेरी मानो तो ये सब टुच्चे तरीके छोड़ो और अपनी गुणवत्ता पर ध्यान दो टी.आर.पी. अपने आप बढ़ जाएगी। क्यों कि जहाँ गुणवत्ता वाली चीज़ दिखाई देगी दर्शक की उंगली और नज़र वहीं ठहर जाएगी। नहीं तो आज-कल रिमोट कंट्रोल का ज़माना है और उस पर लोगों की उंगलियाँ भी बहुत तेज़ी से चलती हैं।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-38633185554771687922007-10-15T13:17:00.000+05:302007-10-15T15:16:46.327+05:30एक तबका अभी भी छूट रहा हैचिट्ठों की शुरुआत हुए काफी समय बीत गया है। आज हिन्दी चिट्ठे अपने शैशवकाल से थोड़ा ऊपर उठ कर योवन के धरातल की तरफ अपने कदम बढ़ा रहे हैं। इतना ही नहीं चिट्ठों को मुख्य धारा के संचार माध्यमों के नए एवं सशक्त माध्यम के रूप मे भी देखा जा रहा है। यह स्वभाविक भी है क्यों कि चिट्ठों मे कमोवेश भ्रष्टाचार की संभावना कम है। इसका मूल कारण है इनके आर्थिक पहलू का न होना। जिस किसी भी चीज़ का आर्थिक पहलू नहीं होगा और जिसका उद्देश्य मात्र स्वयं का सुख और सेवा होगा वहां भ्रष्टाचार की संभावनाएं उतनी ही कम हो जाती है। अभी तक के सभी चिट्ठों को पढने के बाद एक बात जो सामने आई वह यह है कि आम तौर पर सभी चिट्ठों का सरोकार य तो साहित्य से है या फिर सामयिक राजनीतिक मुद्दों के विश्लेषण से। यहां एक तबका ऐसा रह जाता जो कि तथाकथित मुख्य धारा मे तो अपनी जगह बना ही नहीं पा रहा है परंतु भविष्य के वैकल्पिक मीडिया कहे जाने वाले इन चिट्ठों से भी अछूता रह गया है।<br /> जी हाँ मैं बात कर रहा हूं हमारे समाज के वंचित तबकों की। उन लोगों की जिन्हें दोनो वक़्त का भोजन भी सही ढंग से उपलब्ध नहीं हो पाता,कपड़ों के नाम पर जो महज़ कुछ चिथड़े अपने बदन पर लपेटे रहते हैं, उन लोगों की जो अपनी सारी ज़िन्दगी फुटपाथ पर ही बिता देते हैं। चिट्ठाजगत पर साहित्य की बातें होती हैं, जीवन की अनुभूतियों की बातें होती हैं, भाषा के उन्नयन की बातें होती हैं, राजनीति की बातें होती हैं अर्थिक नीतियों की बातें होती हैं पर फिर भी भारतीय समाज का यह यह एक बड़ा तबका जिन्हें हम वंचितों की श्रेणी मे रखते हैं।जिन्हे हमारे समाज ने एक दम हाशिए पर रख दिया है हमारे चिट्ठे जगत से एक दम छूट गया है। ऐसा नहीं है कि इनसे जुड़े मुद्दे लोगों को उद्द्वेलित नहीं करते परंतु अगर आवश्यक्ता है तो एक सार्थक पहल की। आवश्यक्ता है तो अपनी शक्ति को पहचान कर उसे एक दिशा देने की। अब यहाँ से तो सभी के व्यक्तिगत विचारों का मंथन प्रारंभ होता है। तो मित्रो चलो हम सब अपने विचारों के मंथन मे थोड़ी जगह इन लोगों को भी दें। मुझे यकीन है कि इस मंथन में भी कुछ महत्वपूर्ण रत्न निकल कर आएंगे। मैं जानता हूं कि मेरे चिट्ठे की पठनीयता इतनी अधिक नहीं है कि वह अधिक लोगों को प्रभावित कर पाए परंतु यदि मेरा यह सन्देश यदि किसी एक व्यक्ति को भी इन मुद्दों पर लिखने के लिए प्रेरित कर पाया तो मैं समझूंगा कि मेरा लिखना सार्थक रहा। नहीं तो "एकला चलो" का नारा तो साथ है ही। अकेले इस सफर की शुरूआत की है अकेले ही चलूंगा। पर फिर भी यह अवश्य कहूंगा कि "आओ पहल करें"विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-45673798682779363852007-10-11T01:41:00.000+05:302007-10-11T01:42:09.879+05:30इंडियन आईडलएक समय था जब आदर्शों की बात करने पर महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह जैसे महापुरुषों के नाम आते थे। माता-पिता अपने बच्चों को इन जैसे कर्म करने को प्रेरित किया करते थे। बच्चे भी बचपन से इन्हीं के बारे में सुन कर बड़े हुआ करते थे। परंतु धीरे-धीरे समय बदला, काल बदला और साथ ही बदल गए हमारे मूल्य और आदर्श। आज माता-पिता अपने बच्चों को जीवन के मूल्यों की जगह वस्तुओं के मूल्यों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करते हैं। हमने गाँधी, सुभाष, टैगोर, आज़ाद, तिलक, पटेल, शास्त्री जैसे महापुरुषों को एक दम हाशिए पर ला कर खड़ा कर दिया है। इनका अस्तित्व आज-कल महज़ कार्यालयों में टंगी,मिट्टी की पर्त से ढंकी, तस्वीरों और चौराहों पर खड़ी धूल धुसरित प्रतिमाओं तक ही सीमित रह गया है। और आज की युवा पीढी के आदर्शों की सूची में शुमार हो गए हैं अभिजीत सावंत, अमित साना, शाहरुख खान, आमिर खान, ऋतिक रोशन और न जाने ऐसे कितने ही लोग। ये हैं आज के इंडियन आईडल(भारत के आदर्श)। जीवन के मूल्यों का अवमूल्यन करते और आदर्शों का मिथ्या प्रदर्शन करते। ये ऐसे लोग हैं जो भूखमरी मिटाने के लिए भूखों के समूह मे खड़े हो कर आवाज़ तो ज़रूर उठाते हैं परंतु जूस पी-पी कर। तन ढंकने के लिए कपड़ों की गुहार करते लोगों की आवाज़ मे अपना स्वर ज़रूर मिलाते हैं परंतु ली की जींस, कॉटन प्लस की शर्ट, और वुडलेंड के जूते पहन कर। <br /> बढिया है! हमारे देश ने काफी तरक्की कर ली है। हमने अपने सफर की शुरुआत खादी से कर के आज उसे ली, वूडलेंड, लीवाइस, कॉटन प्लस आदि पर ले आए हैं। सच है आज भले ही भारत में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें खाने को भर पेट भोजन उपलब्ध नहीं है पर फिर भी हम लोग आर्थिक सशक्तिकरण की ओर बहुत तेज़ी से अग्रसर हैं क्यों कि हमारे शेयर बाज़ार का सूचकांक 19,000 का आँकड़ा छूने को है।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-19872044271537775442007-10-08T22:16:00.000+05:302007-10-08T22:45:14.585+05:30ये विकास का मामला है।आज कल भूख, गरीबी, शिक्षा, बेरोजगारी आदि जैसे विकास के मुद्दों पर बात-चीत करना फैशन हो चला है। किसी चाय या सिगरेट की दुकान पर ही यदि खड़े हो लिया जाए तो महज़ पाँच मिनिट के अंतराल में आप दो-तीन लोगों को इन मुद्दों पर बात करते हुए देख लेंगे। ऐसी ही एक हवा मीडिया जगत में भी चली है। इस विषय पर मीडिया से संबंधित लोग प्रायः बात करते ही रहते हैं। ऐसे वार्तालापों में एक बहुत अजीबोगरीब बात सामने आती है कि जहां एक ओर मीडिया संस्थानों के रिपोर्टरस और संवाददाताओं का कहना है कि ऐसे मुद्दों से जुड़ी खबरों के लिए समाचार-पत्रों मे जगह नहीं दी जाती वहीं संपादकों एवंउप संपादकों का कहना है कि इस तरह के समाचार ही नहीं लाए जाते वरना हमारी पूरी कोशिश होती है कि ऐसे मुद्दों को उचित जगह दी जाए। यदि इन दोनों के पक्षों की बात मान ली जाए तो अब सवाल यह उठता है कि यदि दोनों अपनी जगह सही हैं तो गलत कौन है और इन दोनो के बीच ऐसा कौन है जो ऐसे मुद्दों को बीच में ही हजम कर जाता है। और यदि ऐसा कोई नहीं है तो फिर झूठ कौन बोल रहा है। <br /> पर भाई सच और झूठ के फेर में हम न पड़ें तो ज़्यादा बेहतर होगा क्यों कि सारी दुनिया इसके पीछे पड़ी हुई है। अब जहाँ तक समाचार पत्रों मे ऐसे मुद्दों को जगह देने की बात है तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब भी मैने ऐसे मुद्दों पर लिखा है तब तब मुझे स्पेस मिला है। और सिर्फ मिला ही नहीं अच्छा-खासा मिला है। फिर ये बात तो बेमानी हो जाती है कि जगह नहीं मिलती। यहाँ बस यही कहना रह जाता है कि इन मुद्दों पर काम करना हर कोई चाहता है। बात हर कोई करता है। पर बात और बहस करने और चाहने के बीच और होने के बीच एक सेतु होता है वो है कोशिश का। और कमी यहीं रह जाती है कि लोग एक ईमानदार कोशिश नहीं करते।<br /> पर भाई आज-कल फैशन सिर्फ बातचीत करने का चल रहा है न कि कोशिश करने का। जब कोशिश करने का फैशन शुरू होग तब हम भी करेंगे अभी से क्यों अपना सर इन फालतू मुद्दों के लिए धुनें।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-57304395032864734642007-10-03T20:27:00.000+05:302007-10-03T21:04:58.573+05:30सिमटते संसार में सिमटते लोगआज पूरे विश्व ने सिमट कर एक विश्वग्राम का रूप अख्तियार कर लिया है। और यदि तरक्की इसी रफ्तार से ज़ारी रही तो कुछ वर्षों मे यह विश्वग्राम एक विश्वगृह के रूप मे भी हमारे सामने आ जाए तो इसमे अचम्भा नहीं होगा। परंतु इस तेज़ी से हो रहे बदलाव के साथ और क्या-क्या बदलाव आए हैं इसका मूल्यांकन करना भी बहुत आवश्यक हो गया है। मूल्यांकन इस बात का कि तेज़ी से की गई इस प्रगति में हमने क्या-क्या पाने की चाह मे क्या-क्या खो दिया है। <br /> मुझे याद है हमारे बचपन में यदि किसी पर्व के समय गाँव मे किसी की मृत्यु हो जाया करती थी तो उस वर्ष पूरे गाँव मे वह पर्व नहीं मनाया जाता था। परंतु आज यदि हमारे घर के बगल वाले घर मे भी किसी की मृत्यु हो जाती है तो हमारे घर के कार्यों मे कोई असर नहीं पड़ता। वे अपनी गति से सुचारू रूप से चलते रहते हैं। पहले एकल परिवार प्रणाली में एक परिवार के सभी लोग एक साथ रहते थे। सभी बड़े-बुजुर्ग एक आशिर्वाद के रूप में उस घर में रहते थे परंतु आज बाकी लोग तो छोड़ो अपने माता-पिता को भी लोग घर की अपेक्षा बुजुर्ग-घर(ओल्ड एज होम्स) में रखना पसंद करते हैं। पहले यदि घर मे कोई अनहोनी हो जाती थी तो संबल देने के लिए भरा पूरा परिवार हुआ करता था पर आज ऐसे समय भी परिवार के लोग ही मेहमान की तरह आते हैं। पहले जब दोस्तों से मिलते थे तो खुशी अंदर से आती थी पर आज यदि गाहे बगाहे कोई दोस्त मिल भी जाता है तो लोग बनावटी हँसी का एक मुखोटा लगा कर मिलते हैं। और उनकी हँसी महज़ एक एहसान की तरह प्रतीत होती है जो वे लगातार एक दूसरे पर करते रहते हैं और कृतार्थ होते रहते हैं। यदि याद करने बैठो तो ऐसे ही न जाने कितने बदलाव हमारी नज़रों के सामने से एक तीर की तरह गुज़र जाते हैं।<br /> और अब यदि हम इस वैश्वीकरण की उपलब्धियों के बारे में सोचें तो हमने बेशक आर्थिक विकास किया है और इंसान आर्थिक रूप से बहुत संपन्न हो गया है पर न तो उसे सुकून है और न ही वह संतुष्ट है। उसके पास भोजन के अपार भंडार हैं पर भूख नहीं है। संतुष्टि, प्रेम, अपनत्व आदि जैसे अनेकों शब्दों को हमने हाशिए पर ला दिया है और ये शब्द आजकल मात्र किताबों में ही मिलते हैं। लोगों के पास पीने के लिए बिसलरी तो है परंतु वो प्यास नहीं है न पानी की, न रिश्तों की, न प्रेम की। इस बात पर ज्ञानरंजन जी की कुछ पंक्तियां सहसा ही याद आ जाती हैं कि "हमारे संसार मे अब प्यासे लोग दुर्लभ हैं। लोग तृप्त हैं, एक मार्गी हैं, चपल और सफल हैं। उन्हें पत्थर तोड़ने, लड़खड़ा कर चलनेकी व्यर्थता का पता चल गया है।"<br />क्या यही है सही मानों में वैश्वीकरण?विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-14164228866705981942007-10-02T12:04:00.000+05:302007-10-02T12:31:27.999+05:30अस्तित्ववाद और गांधी जीआज के वार्तमान युग में हम सभी अपने अस्तित्व को बचाए रखने की अंधी दौड़ में भगते जा रहे हैं। किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि वो अपने बारे में सोचे तो दूसरों के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात है। क्यों कि अगर थोड़ी सी भी लापरवाही हुई तो अपने अस्तित्व की रक्षा में जो भी किया गया है वो सब व्यर्थ हो जाएगा। ऐसे समय में गांधी जी के आदर्शों का पालन करना तो दूर उनकी तरफ ध्यान देना भी कठिन हो गया है। इसी लिए आज गांधी जैसे शास्वत सत्य को भी सिर्फ कुछ खास पर्वों पर ही याद किया जाता है। या फिर तब याद किया जाता है जब अपनी निर्बलता को अहिंसा के जामे में छिपाना हो। इसक अलावा उन्हे हमारी स्मृतियों के आस-पास भी नहीं फटकने दिया जाता। यदि आज की पीढी को लिया जाए तो अधिकतर उनके आदर्शों को खोखला और वर्तमान समय के हिसाब से बेमानी बताते हैं। कहते हैं कि उस समय भले ही अहिंसा और सत्य के सहारे कुछ भी हासिल किया जाना संभव रहा हो परंतु आज इन आदर्शों के बल पर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। परंतु हमारे देश की यह भावी पीढ़ी यह भूल जाती है कि गांधी जी और उनके आदर्श तब जितने शास्वत और स्थाई थे आज भी उतने ही हैं बस अगर कहीं कमी रहती है तो वो रह जाती है पूरी ईमानदारी और सच्चाई से उन्हें अपने जीवन में उतारने की और उनका अनुशरण करने की। क्यों कि यही वे सिद्धांत और आदर्श हैं जिन्होने गान्धी को गान्धी बनाया और उन्हें आज भी जीवित रखा है। दरअसल गांधी सिर्फ एक इंसान नहीं थे बल्कि कालंतर में वे एक विचारधारा बन गए हैं। एक ऐसी विचारधारा जो समय और काल के बंधनो से मुक्त है और जिसका अस्तित्व अक्ष्क्षुण्ण है।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-29554778189529362262007-10-01T16:42:00.000+05:302007-10-02T02:49:30.872+05:30भारत के कपूत-"महारथी"आज शास्त्री जी के सारथी की एक पोस्ट के माध्यम से मैं एक <strong>महारथी</strong> जी से मिला। इनका नाम है <a href="http://www.blogger.com/profile/01389375821591467876">जगत चंद्र पटराकर </a> ये दर असल अपना तकल्लुस महारथी लगाते हैं। भाई साहब अंग्रेज़ी के अनन्य भक्त हैं और हिन्दी को भी रोमन लिपि में लिखने की वकालत करते हैं। इनके ब्लॉग का नाम है <a href="http://mahaarathi.blogspot.com/">हंगामा है क्यूं बरपा</a> । अरे भाई साहब जब आप मातम में जाकर हँसोगे तो भद्रा ही उतरेगी मुद्रा तो नहीं मिलेगी। मांफ कीजिएगा अपने इस सन्देश मेरी भाषा अपने स्तर से थोड़ा नीचे आ गई है। मैं तो बहुत कोशिश कर रहा हूं कि कुछ बुरा य अपशब्द न निकले पर क्य करूं। मैं जब किसी दूसरे की माँ का अपमान नहीं करता तो अपनी माँ का अपमान कैसे सहन कर सकता हूं? इसीलिए मैं अपने चिट्ठे के इस सन्देश के लिए अपनी भाषा के स्तर से थोड़ा नीचे आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। हाँ तो हम बात कर रहे थे इन महाशय महारथी जी की तो ये माननीय अपने चिट्ठे को देवनागरी में लिख कर हमारी देश की भाषाओं को रोमन लिपि मे लिखने का प्रचार कर रहे हैं। यानि महाराज जिस थाली में खा रहे हैं उसी में छेद कर रहे हैं। इतना ही नहीं इन्होंने अपने एक और बुद्धिहीन मित्र मधुकर एन. बोगटे जी के साथ मिल कर एक संस्था रोमन लिपि परिषद का भी निर्माण किया है जो इनके इस बेबकूफी भरे कार्य का प्रचार-प्रसार करेगी। और हां ज़रा इनकी हिमाकत तो देखिए ये हिन्दी चिट्ठाजगत मे आकर हिन्दी वालो से ये अपेक्षा रख रहे हैं कि हम लोग इन लोगों की इस निकृष्ट संस्था में शामिल होंगे। मुझे दुष्यंत जी का एक शेर याद आ रहा है:-<br />उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें।<br />चाकू की पस्लियों से गुजारिश तो देखिए।<br />यह शेर शायद इन्हीं जैसे तुर्रमखानों से प्रेरित हो कर लिखा गया होगा। और हां शायद दुनिया के 140 विश्वविद्यालयों का संचालन मूर्ख कर रहे हैं जहां हिन्दी पढाई जा रही है। शास्त्री आप, समीर भाई आप, संजय बेंगाणी जी आप, रवि भाई आप और हिन्दी चिट्ठा जगत के सभी चिट्ठाकार भाईयो हम सभी बेबकूफ हैं जो यूं ही हिन्दी का परचम अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर फहराने के लिए मरे-खपे जा रहे हैं। सिर्फ यही एक बुद्धिजीवी बचे हुए हैं धरती पर। अब पत नहीं बुद्धिजीवी या बुद्धूजीवी। <br /> और महाशय महारथी जी आपके चिट्ठे पर दो टिप्पणियां छोड़ कर आया हूं इस उम्मीद में कि टिप्पणियाँ पढ़ कर तो आप यहाँ आयें और यह लेख पढ़ें। और हां आप इतने बड़े ज्ञानी बन रहे हैं आपको एक खुली चुनौती है। भारत की भाषाओं को रोमन लिपि में तो बाद में लिखिएगा अगर हिम्मत है तो उसके लिए पहले अपने स्वतंत्र स्वरों की व्यवस्था कर दीजिए बेचारी अपने उच्चारण के लिए अभी भी हिन्दी पर ही निर्भर है। और हां चूंकि ये हिन्दुस्तान है इसीलिये आप इतना कहने के बाद भी अभी तक सही सलामत हैं। अंत में एक बात और:-<br />जिसको न निजि भाषा, न निजि राष्ट्र का अभिमान है।<br />वो हृदय नहीं है पत्थर है और मृतक समान है।<br />महारथी जी आप सही में मर चुके हैं।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-36821830916823452942007-09-30T13:56:00.000+05:302007-09-30T14:00:04.373+05:30टिप्पणियों का मनोविज्ञानआज कल चिट्ठाजगत में टिप्पणियों पर बड़ी चर्चा हो रही है। कुछ लोगो का मनना है कि टिप्पणियां ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं होतीं तो वहीं कुछ लोग कहते हैं कि टिप्पणियों की अपनी एक अहम भूमिका होती है। दरअसल टिप्पणियां एक पाठक का हस्ताक्षर होती हैं और लेखक के लिए प्रेरक का काम करती हैं। फिर चाहे वह “लिखते रहें”, “अच्छा लिखा”, “बहुत खराब” या “दोबारा लिख कर पाठकों को मनसिक प्रताड़ना न दें” जैसी ही क्यों न हों। क्यों कि एक टिप्पणी यह भी बताती है कि एक पाठक आपकी रचना को पूरा य आंशिक रूप से पढ़ कर गया है मात्र आपके चिट्ठापृष्ठ का भ्रमण कर के नहीं। और यह बात कोई स्टेट्स काउंटर नहीं बता सकता। यदि टिप्पणी सकारात्मक होती है तो वह लेखक को और लिखने को प्रेरित करती है और यदि वह नकारात्मक होती है तो वह उसे अपने लेखन को और बेहतर बनाने में सहायक होती है। और इन टिप्पणियों की महत्ता तब और बढ जाती है जब यह किसी नए चिट्ठाकार की रचनाओं पर की जाती हैं क्यों कि एक पुराना रचनाकार तो अपनी रचनाओं के बारे मे बहुत अच्छे से जानता है परंतु एक नए रचनाकार को उसकी रचनाओं के बारे में बताना और उसे प्रोत्साहित करना पुराने और स्थापित रचनाकारों का धर्म बन जाता है। परंतु यह तभी संभव है जब दो रचनाकार एक-दूसरे को प्रतिद्वंदी न मान कर पूरक माने क्योकि इसी तरह हम सभी अपने लक्ष्य और प्रारब्ध को अर्थात हिन्दी की सेवा मे अपना योगदान दे पायेंगे। और हम सभी का एकमात्र ध्येय भी तो यही है। है ना??<br /><span style="color:#ff0000;">स्वभाषस्य सुखाय। स्वभाषस्य हिताय।</span>विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-14897720971816924212007-09-29T21:13:00.000+05:302007-09-29T21:15:47.849+05:30अरबपति और भूखेमेरी एक रचना ‘प्रदर्शन का दर्शन’ पर समीर भाई ने एक बहुत अच्छी टिप्पणी और उसी टिप्पणी ने मुझे प्रेरित किया यह लेख लिखने को। <br />भाई अभी हाल ही में बॉलीवुड, हॉलीवुड, नॉलीवुड और न जाने कितने ही वुडों के लोग न्यूयॉर्क में हो रहे संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय की इमारत के सामने भूख की समस्या को ले कर प्रदर्शन कर रहे थे। पर मुझे यह समझ नहीं आता कि जो लोग खुद हमेशा पांच सितारा होटलों में खाना खाते हों भला वे क्या जाने कि भूख क्या होती है? बकौल समीर भाई उनका नाम असरकारक है इसीलिये कुछ भला ही होगा। समीर भाई मैं भी आपकी बात से सहमत हूं। मैं इस प्रदर्शन के विरुद्ध भी नहीं हूं। परंतु सिर्फ तभी जब यह सब सिर्फ भला करने की मंशा से किया जा रहा हो। यदि आंकड़ों को याद किया जाए तो दुनिया में इस समय 946 घोषित अरबपति हैं और लगभग 80 करोड़ 54 लाख लोग ऐसे हैं जो जिन्हे रोज़ाना खाना नसीब नहीं होता। यदि बाकी अघोषित अरबपतियों और अन्य कई पतियों को छोड़ दिया जाए तो भी ये 946 अरबपति ही इन सभी भूखों के दोनो वक़्त के भोजन की व्यस्था कर सकते हैं। वो भी अपनी सेहत पर बिना कोई असर पड़े। परंतु समस्या वहीं खड़ी हो जाती है कि ऐसे प्रदर्शनों के माध्यम से इनकी मंशा ये नही होती कि भूख हटे। और हां यदि दुनिया में जितना भी काला धन है उसे ही निकाल कर इन लोगों को बांट दिया जाये तो ये सभी भूखे लखपति बन जायेंगे। वैसे एक गीत मैने बहुत पहले बचपन मे सुना था उसकी कुछ पंक्तियां यहां दे रहा हूं : <br /> लहू का रंग एक है अमीर क्या गरीब क्या। <br /> बने हैं एक खाक से तो दूर क्या करीब क्या। <br /> वो अमीर इसलिये कि ये गरीब हो गए।<br /> एक बादशाह हुआ तो सौ फकीर हो गए।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-71905987571271662092007-09-29T14:46:00.000+05:302007-09-29T14:47:54.607+05:30ईश्वर नाम की तराज़ूजोश मलीहाबादी का एक शेर है:- <br />इंसां का खून खूब पियो इज़्बे आम है।<br />अंगूर की शराब का पीना हराम है। <br />दरअसल इंसानो की इस दुनिया में इंसानो ने ईश्वर को खोज निकाला जिससे कि उसे तराज़ू की तरह उपयोग में लाया जा सके। उसके माध्यम से सही-गलत, अच्छे-बुरे, सच-झूठ आदि को तौला जा सके। ईश्वर की खोज एक आदमी को इंसान और जंगल को बस्ती बनाने के लिए भी आवश्यक थी परंतु समय के साथ आदमी उस तराज़ू का उपयोग कर के इंसान तो नहीं बन पाया परौसने इस तराज़ू को ज़रूर अलग अलग नामों से बाट डाला और इस तराज़ू के बंटने से धरती भी कई टुकड़ों में बंट गई। आदमी को इंसान बनाने के लिए ज़मीन पर जो वरदान उतरा था उसे इन आदमियों ने एक अभिशाप का रूप दे दिया। ये वही ईश्वर था जो भले ही अलग-अलग नामो से जाना जाता हो पर सिखाता सभी को प्रेम और सौहाद्र से रहना ही था। हर धर्म नाम से भले ही कितना ही भिन्न क्यों न हो पर उसकी सीख हमेशा भेद-भाव रहित जीवन ही रही है। जहाँ हिंदू धर्म मे ईश्वर कण-कण मे बसता है वहीं इस्लाम में वह तमाम आलमों का रखवाला है। बाईबल में जब प्रकाश को जागृत होने का हुक्म दिया गया था तो वह रोशनी सारे संसार के लिये थी न कि केवल ईसाईयों के लिये। नानक ने भी एक ही नूर से सारे जग के उपजने की सीख दी है। और कबीर ने तो इन सभी बातें का और धर्मग्रंथों का सार ही सिर्फ ढाई अक्षरों मे दे दिया-प्रेम। परंतु कालांतर में हमने इन सभी को बस अपने स्वार्थ के लिये ही प्रयोग करना शुरू कर दिया। और आज भी हम सब इन सभी पवित्र ग्रंथों को, इनकी शिक्षाओं को,इनके नामो को बस अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये तोड मरोड़ कर इन्हे इनके मूल रूप से विकृत कर अपने अनुरूप ढाल कर प्रस्तुत करने में लगे हुए हैं। जो सारे विवादो, सारी विकृतियों, सारी परेशानियों की जड़ है। <br />-विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-48861755764424468492007-09-29T13:54:00.000+05:302007-09-29T13:59:20.260+05:30मान गए मियाँ मुशर्रफ<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWNmTIQUPCrUpUGEBRA05iSo7lNjH_EqIHqByPjU57acMC67qkbqIjF4OMJXI-4bcMB0Kdnj8t-gHyYLbOukNQXAe_fYy7ErwJGwnKYpnB0dAakzWJqGc6karf-YiM_Y0ThEIrV1s844P1/s1600-h/pakistani_president_pervez_musharraf_3.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWNmTIQUPCrUpUGEBRA05iSo7lNjH_EqIHqByPjU57acMC67qkbqIjF4OMJXI-4bcMB0Kdnj8t-gHyYLbOukNQXAe_fYy7ErwJGwnKYpnB0dAakzWJqGc6karf-YiM_Y0ThEIrV1s844P1/s200/pakistani_president_pervez_musharraf_3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5115539841602812258" /></a><br />मान गए मियाँ मुशर्रफ आपको। आप से बेहतर राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, और रणनीतिज्ञ पाकिस्तान में न कभि हुआ है और शायद न हि कभी हो पायेगा। पाकिस्तान की फौज में जहां हमेशा पंजाबी अफसरों का बोलबाला रहा वहां आप धड़ल्ले से अपनी पदोन्नति लेते रहे। फिर जिन नवज़ शरीफ ने आपको सबसे सुरक्षित समझ कर सेना अध्यक्ष बनाया आपने उन्ही शरीफ की कूटनीति को फेल कर दिया और उन्हें देश से ही निकाल बाहर किया और किया भी कुछ इस तरह कि वो आज तक पाकिस्तान के अंदर नही घुस पा रहे। <br /> और इतना ही नहीं अब आप दूसरी बार राष्ट्र्पति का चुनाव भी लड़ रहे हैं। भले ही कितना भी विरोध हो आपको क्य फर्क़ पड़ना है। दिखावे के लिये आपने यह घोषणा भी कर दी कि यदि आप राष्ट्रपति बन गए तो सेना अध्यक्ष् का पद छोड़ देंगे। अब आपने सारे मुख्य पदों पर अपने हांथ की कठपुतलियों की नियुक्ति तो कर ही दी है तो अब भले ही आप सेना अध्यक्ष रहें या आपका कोई गुर्गा क्या फर्क़ पड़ना है। पकिस्तान के वकीलों ने आपके खिलाफ अपनी कमर कस ली है। पर उन बेचारे नासमझों को कौन समझाए कि जहां राजनीति, रणनीति और कूट्नीति का इतना उत्कृष्ट मिश्रण हो वहां प्रदर्शन, धरने, जनादेश आदि सब धरे के धरे रह जाते हैं। <br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCg7b5IBdg1oy4Aq_WbH0F-eaytZrAM9vyT2NQf6E2sedsXJRfcAur0OE0FWywav1dYpbSR3QzRBXQY0cPVrwdcjM_PzEfu3Z7A9GoPpCR0_3CeTky0g_LV9EAbg-8zlNxfHtwmzgzCZoV/s1600-h/CARI.Musharraf"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCg7b5IBdg1oy4Aq_WbH0F-eaytZrAM9vyT2NQf6E2sedsXJRfcAur0OE0FWywav1dYpbSR3QzRBXQY0cPVrwdcjM_PzEfu3Z7A9GoPpCR0_3CeTky0g_LV9EAbg-8zlNxfHtwmzgzCZoV/s200/CARI.Musharraf" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5115539841602812274" /></a><br /> अब सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल के प्रवक्त मुनीर मलिक कह रहे हैं कि नौ न्यायाधिशों की खंड्पीठ, जिसने मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष रहते राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की इजाज़त दी है उसके तीन न्यायाधीश जिन्होंने मुशर्रफ के विरोध में मत दिया था उन्हें इतिहास में गिना जायेगा और जिन छः ने मुशर्रफ के पक्ष मे मत दिया उनका फैसला इतिहास करेगा। चलो अब मुनीर साहब ने उन तीन बेचारे न्यायाधीशों को इतिहास में गिन लिया यानि वह भी यह तो जान ही गए है कि अब वे लोग बस इतिहास ही बन कर रह जायेंगे और बाकी के छः अभी आगे आकर कौन-कौन से बड़े ओहदे सम्हालेंगे यह आने वाला वक़्त बताएगा। मगर एक बात तो है मियाँ मुशर्रफ कि आप तो बस आप ही हैं।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-68238761426120154542007-09-28T21:53:00.000+05:302007-09-28T21:57:05.043+05:30फ़तवे की राजनीतिहाल ही में कुछ दिनों पहले बरेली के एक मौलवी ने सलमान खान के खिलाफ सिर्फ इसीलिये फ़तवा ज़ारी कर दिया था क्यों कि उन्होने गणेश पूजा में शिरकत की थी। हालांकि इस फ़तवे को इतनी तवज़्ज़ो नहीं दी गयी परंतु यह फ़तवा आज-कल धड़ाधड़ ज़ारी किये जा रहे फ़तवो और उन पर सवार राजनीति पर एक सवालिया निशान लगा देते हैं। चाहे वह फ़तवा तसलीमा नसरीन पर हो या सलमान खान पर। <br />जहां तक तसलीमा नसरीन के ऊपर ज़ारी किये गये फ़तवे की बात है तो तो उन पर फ़तवा उनकी किताब ‘लज्जा’ के लिये ज़ारी किया गया था। और जितना मुझे याद है इस्लाम के खिलाफ कुछ नहीं लिखा था। उसमें सिर्फ और सिर्फ बांग्लादेश में हुए दंगों के दौरान की स्थिति का ही वर्णन किया गया था। और अब यह फतवा जो सलमान खान पर ज़ारी किया गया है उसने तो अपनी सारी हदें ही तोड़ दी हैं। इस फ़तवे ने न केवल इस्लाम की छबि को ही धूमिल किया है बल्कि इसने फ़तवे की महत्ता को भी कम कर दिया है। यदि सलमान पर लगाए गए इस फतवे के माध्यम से बात करे तो शायद वे मौलवी जिन्होने यह फ़तवा ज़ारी किया है या तो वे असल मे मौलवी बनने लायक ही नहीं हैं या फिर उन्हें इसलाम की सही समझ नहीं है। दरअसल वे एक सच्चे मुसलमान कहलाने लायक ही नहीं हैं। क्यों कि इस्लाम में मुसलमान का अर्थ होता है जिसका ईमान मुसल्लम(पवित्र) हो और जिसका ईमन पवित्र होता है वह सभी धर्मों के सह-अस्तित्व पर विश्वास रखता है। यहा तक कि क़ुरान मे भी सभी धर्मों के सह-अस्तित्व की बात कही गई है। उसमे कहीं भी किसी दूसरे धर्म को नीचा समझने या दिखाने पर ज़ोर नहीं दिया गया है और जो तथाकथित इस्लामी धर्मगुरू दूसरे धर्म को नीचा दिखाने उनके अस्तित्व को नकारने की बात करते हैं वे इस्लाम और उसकी शिक्षाओं दोनो का गलत संदेश दुनिया को देते हैं। और दुनिया भर में इसलाम और मुसलमानों को बदनाम कर रहे हैं।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-13181604300999435532007-09-28T15:42:00.000+05:302007-09-28T16:25:21.299+05:30सैनिकों और अधिकारियों के बेतनमान मे अंतर<span style="color:#ff0000;">जो पुल बनायेंगे,<br />वे अनिवार्यतः<br />पीछे रह जाएंगे<br />सेनाएँ होंगी पार<br />मारे जायेंगे रावण<br />जयी होंगे राम<br />जो निर्माता रहे<br />इतिहास में<br />बंदर कहलाएंगे।</span><br /> <span style="color:#3333ff;"> -:अज्ञेय:-<br /></span><br />हमारे हिन्दुस्तान मे यह प्रथा पुरातन है कि एक लड़ाई में मरें चाहे कितने ही सैनिक परंतु चक्र सदैव नेतृत्वकर्ता को ही प्राप्त होता है। एक राज्य या एक देश की इमारत न जाने ऐसे कितने ही महान और गुमनाम सैनिकों के बलिदान की नींव पर खड़ी होती है। और यह उन जाँबाज सैनिकों का जज़्बा होता है कि वह इसके बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखते। परंतु ऐसे मे यह हमारी और हमारे प्रशासन की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि हम ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने दे जिससे उन सैनिको मे ग्लानि और हीन भावना का बोध पैदा हो।<br />परंतु आज भारतीय सैनिको मे न केवल हीन भावना का बोध ही देखा जा रहा है बल्कि उन्मे सरकार के प्रति रोष बी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसका एक मुख्य कारण है उनके वेतनमान मे अनियमित अंतर। जी हाँ यदि हम वर्तमान मे भारतीय सशस्त्र सैनाओं के अधिकारियो और जवानो के मूल वेतनमान के अंतर को देखें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह किस हद तक अनियमित है। उदहरण के लिये जब एक अधिकारी भर्ती होता है तो उसका मूल वेतनमान 8250 रुपये मासिक होता है जबकि वहीं एक सिपही का मूल वेतनमान 3250 रुपये मासिक है। यदि थोड़ा और विस्तार से देखा जाये तो एक सिपाही अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा कर सूबेदार मेजर की रेंक तक पहुचता है जिसका मूल वेतनमान 6750 रुपये मासिक होता है जो कि एक नये भर्ती अधिकारी से भी लगभग 1500 रुपये कम है।<br />हालाँकि इस विषय पर अपने समर्थन मे प्रशासन यह कहे कि चूंकि वह अधिकारी है इसीलिये उन्हे अधिक वेतनमान दिया जाता है। तो इसके लिये मैं एक बात की तरफ और उनका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि हमारी सैन्य व्यवस्था मूलतः ब्रिटेन की सैन्य व्यवस्था से प्रेरित है और वहां जब एक अधिकारी भर्ती होता है तो उसका मूल वेतनमान 14348.88 पाउंड्स वार्षिक होता है वहीं जब एक सैनिक भर्ती होता है तो उसका मूल वेतनमान 12571.92 पाउंड्स वार्षिक होता है।<br />अब यह हमारे प्रशासन को तय करना है कि क्या यह उचित है या नहीं। क्य यह हमारी ज़िम्मेदारी नही बनती कि जो सैनिक अपना सबकुछ छोड़ कर सीमा पर तैनात रहता है और वक़्त पड़ने पर अपनी जान देने में तक नहीं हिचकिचाता उसके साथ इस तरह की स्थिति न उत्पन्न होने दें कि उसे अपने देश की प्रतिबद्धता पर ही अविश्वास होने लगे।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-86221607468185725352007-09-27T13:42:00.000+05:302007-09-28T12:19:24.712+05:30विभाजन का दंश<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggAFFuizYj06FLaSMvcb5Sgz6asVyo2o85cFs9L2dl34Ew7QBPZ3iGf5D-fQI601rf9F_Z8GJ6tGoGlfJvN6NnyvkliOV-BwqsYtTET8nrGC1cnZPBrtIdU4SdLdL0OvqhW8RulOipQ-o_/s1600-h/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE+%E0%A4%95%E0%A5%87+%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3+%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AC+%E0%A4%94%E0%A4%B0+%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B2+%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82+%E0%A4%8F%E0%A4%95+%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BC+%E0%A4%B8%E0%A5%87+%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BE+%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%97+%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4+%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%8F+%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%95+%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%98%E0%A4%B0+%E0%A4%B9%E0%A5%8B+%E0%A4%97%E0%A4%8F.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;" 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border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114795450755971378" /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtWPaRYphV61AdW_8DHoQzB-fx-243bW-aENTlUoyPsWxrK8llI-O7NVEXrjZoB8jVEmFmqbQwRRbUyI5nBsoirEzTxzzZd-kTC6ct88jmXWA-TEp9hDsaZruFc6t03sl5l1vB3-ApjF86/s1600-h/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%87+%E0%A4%97%E0%A4%8F+%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%82+%E0%A4%95%E0%A5%80+%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE+%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%80+%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BE+%E0%A4%A5%E0%A5%80+%E0%A4%95%E0%A4%BF+%E0%A4%95%E0%A4%88+%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A4%B9+%E0%A4%8F%E0%A4%95+%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5+%E0%A4%B9%E0%A5%80+%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%95+%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A5%8B%E0%A4%82+%E0%A4%95%E0%A5%8B+%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BE+%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE+%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; 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जी</a> ने एक टिप्पणी की थी कि “यह बडी विडंबना है कि विभाजन के 60 वर्षों बाद भी हमारे दिलोदिमाग में विभाजन बरकरार है। क्या विभाजन के इस घाव को किसी तरह भरा नहीं जा सकता?” मैं भी सोचता हूं कि वास्तव में 14-15 अगस्त 1947 मे हमने आज़ादी पाई या फिर विभाजन। अंग्रेज़ों ने एक झटके में ही हिंदुस्तान की गंगा-जमुना संस्कृति को दूध की तरह फाड़ डाला। यह वह समय था जब एक उपलब्धि और एक दुर्घटना साथ घटी थी। इतिहास में शायद ऐसा पहली और आखिरी बार हुआ था। उपलब्धि थी स्वतंत्रता की और दुर्घटना थी विभाजन की। ऐसा नहीं था कि यह दुनिया का पहला विभाजन था। इससे पहले भी कुछ देशों के विभाजन हुये थे परंतु यह विभाजन युग की सबसे बडी त्रासदी थी क्यों कि यह विभाजन महज़ ज़मीन या देश का विभाजन नहीं था। बल्कि यह विभाजन था लोगों का, उस हवा का जो इस ज़मीन से उस ज़मीन की तरफ चलती है, उन नदियों का जो इन दोनो देशों की सीमाओं पर बहती हैं, पंछियों का, दिलों का और संस्कृतियों का। यह बंटवारा था इकबाल और मीर का, टैगोर और नज़रूल इस्लाम का, राम और रहीम का। हमारी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, संगीत हर चीज़ को अंग्रेज़ अपनी तेज़ धार वाली दिमागी तलवार से काट कर चले गये। और साथ मे दे गये एक ऐसा घाव जिसे भरने में सदियां लग जाएंगी और अगर यह घाव भर भी गया तो अपने निशान ज़रूर छोड़ जायेगा। हमारी आज़ादी का संघर्ष जितना रक्तमय रहा है उससे कहीं अधिक रक्तमय रही है हमारी आज़ादी। उस समय विभाजन की त्रासदी आज़ादी के उल्लास पर भारी थी, आज भी है और हमेशा रहेगी। क्यों कि उस विभाजन की छुरी सिर्फ ज़मीन पर नही चली बल्कि दिलों पर चली है। और उस विभाजन की कसक आज भी महसूस की जा रही है। और अंग्रेज़ो द्वारा दिये गये इस दंश का ज़हर आज भी दोनों देशों की रगों मे दौड़ रहा है।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-36105141463980685812007-09-26T23:22:00.001+05:302007-09-26T23:40:01.846+05:30गणपती बप्पा मोरेया<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiA8aTJDeUu9jB6falopvq1wPXwdXrPNyV3eH178p1r5w8kkdKH-_WCIc1altu_HffQxxQHmVfsL7-Wlj-qz0UTjIs8WJIJLrug-r8EAquePBv0b1yZR9tLZJueDDx5XllYxfCpk5dv_EQg/s1600-h/image001.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114573538385721522" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiA8aTJDeUu9jB6falopvq1wPXwdXrPNyV3eH178p1r5w8kkdKH-_WCIc1altu_HffQxxQHmVfsL7-Wlj-qz0UTjIs8WJIJLrug-r8EAquePBv0b1yZR9tLZJueDDx5XllYxfCpk5dv_EQg/s200/image001.jpg" border="0" /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiD09Q5OR43IgnTdAjiGw9sW2uOeC1t8DmIWrj9_dKch9CkSrl4B21uIqdFwbTdMsEi09ky0g6pzWCvGK1RqI6fxoptZpxyNzS0GLKHx3Wm3tHVlvt6htZh7PPNpJTJ07LpIjMOt1NfyUv_/s1600-h/image003.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114573538385721538" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiD09Q5OR43IgnTdAjiGw9sW2uOeC1t8DmIWrj9_dKch9CkSrl4B21uIqdFwbTdMsEi09ky0g6pzWCvGK1RqI6fxoptZpxyNzS0GLKHx3Wm3tHVlvt6htZh7PPNpJTJ07LpIjMOt1NfyUv_/s200/image003.jpg" border="0" /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw_IC9uQsdSAtjhzgt4zq0KRLgi1N9wOpRXHmOiJArmokAZACex_ua4mStNvJfxp20D60AP2231hmGaRH3pj11hWYSQ5wJJCJuQ9kSZtzsVRx3scHufAVHiw0EGloQJyj-TWPRkE0iwbib/s1600-h/image004.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114573542680688850" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw_IC9uQsdSAtjhzgt4zq0KRLgi1N9wOpRXHmOiJArmokAZACex_ua4mStNvJfxp20D60AP2231hmGaRH3pj11hWYSQ5wJJCJuQ9kSZtzsVRx3scHufAVHiw0EGloQJyj-TWPRkE0iwbib/s200/image004.jpg" border="0" /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHCupA-h-lGGkoJFpX19GPVviJTGotl__CMuPqA5Ge8e2D6veDbFJtchRt1edJfN3ctm8uvD1o6Y_lG7rrt_uHzQZaEAjSytjKwTlz1XVXH_Cblm8-HQ6F9aN_3-xipRHm-E32jprrcYVg/s1600-h/image006.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114573546975656162" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHCupA-h-lGGkoJFpX19GPVviJTGotl__CMuPqA5Ge8e2D6veDbFJtchRt1edJfN3ctm8uvD1o6Y_lG7rrt_uHzQZaEAjSytjKwTlz1XVXH_Cblm8-HQ6F9aN_3-xipRHm-E32jprrcYVg/s200/image006.jpg" border="0" /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZfMeOkqkjv2Gj36Xk4nqtAjSEP4mJAfY16sa0k6R9o3cNGdCzdQe_tArGk76RRmhC6gOBCMnjxRyNDg3fYESqG_l3iT3Xzu05w4TWXQzS08qrW8nzif3PyxoqV7-xrpLLjmgKw5gNEvfx/s1600-h/image009.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114573551270623474" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZfMeOkqkjv2Gj36Xk4nqtAjSEP4mJAfY16sa0k6R9o3cNGdCzdQe_tArGk76RRmhC6gOBCMnjxRyNDg3fYESqG_l3iT3Xzu05w4TWXQzS08qrW8nzif3PyxoqV7-xrpLLjmgKw5gNEvfx/s200/image009.jpg" border="0" /></a><br /><div>कहा जाता है कि एअ तस्वीर 10,000 शब्दों के बराबर होती है।यहां ऊपर जो तस्वीर की श्रंखला है वह अपने आप में सम्पूर्ण है। और इसे अपने अभिव्यक्ति के लिये शब्दों की आवश्यक्ता नहीं है। परंतु गणपति विसर्जन के बाद गणपति की मूर्तियों की यह स्थिति मन में कुछ प्रश्न उठा देती है कि क्या यही है हमारी साधना और हमारी आस्था? क्या हमारी भक्ति सिर्फ गणपति पर्व के उन चंद दिनों तक ही सीमित है? क्या हमारी आस्था सिर्फ भगवान का नाम लेकर वोतों की राजनीति करने और धार्मिक उन्माद फैलाने के लिये ही है?<br />यदि हम किसी को सुगति प्रदान नहीं कर सकते तो कम से कम उसे दुर्गति तो प्राप्त ना होने दें। मेरी नज़र में ऐसे तथाकथित आस्तिकों एवं साधकों से वह नास्तिक ज़्यदा बेहतर है जो अपनी आस्था का झूठा ढोल नहीं पीटता। अब हमें स्वयं को ही यह निर्णय लेना है कि हम कैसे साधक हैं- Idol, Idea या फिरl Idle </div>विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-2473969565292212972007-09-25T23:17:00.000+05:302007-09-26T02:23:15.418+05:30आस्था और विज्ञान<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg99C8oRRFYHOOedD1N1N31xszW72a_ST_4A893qUxT6ZMFCcgfU54pDii6Pf-1UJScptJMy9DeGvfh3dOLHmyFdDn7m4vjIvXl_KFr84q9Y6I1xOdqAsu3hKlo-HrpN6DPZE0uw-aPkCpZ/s1600-h/180px-Pangea_animation_03.gif"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114202629305006210" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg99C8oRRFYHOOedD1N1N31xszW72a_ST_4A893qUxT6ZMFCcgfU54pDii6Pf-1UJScptJMy9DeGvfh3dOLHmyFdDn7m4vjIvXl_KFr84q9Y6I1xOdqAsu3hKlo-HrpN6DPZE0uw-aPkCpZ/s200/180px-Pangea_animation_03.gif" border="0" />पेंजिया-प्ररंभिक पृथ्वी</a><br /><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTBemsjH2AD7PhI6QuLqVFXeHsSUbfAvzTY2ny2hX2GWAEjKnqT6oTwmbrL4DkAzuyMq5pkBPvfDToS_52XEHAhs8R3a7UnG2aOuCu16fE-Udpv5NO7wao_tIuymQPr8lhMdZpiiC1gWle/s1600-h/untitled.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114202633599973522" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTBemsjH2AD7PhI6QuLqVFXeHsSUbfAvzTY2ny2hX2GWAEjKnqT6oTwmbrL4DkAzuyMq5pkBPvfDToS_52XEHAhs8R3a7UnG2aOuCu16fE-Udpv5NO7wao_tIuymQPr8lhMdZpiiC1gWle/s200/untitled.bmp" border="0" />रामायण में सेतु निर्माण का चित्र<br /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSmRdP_VnLw6o0XG3Vd1AsivkokFSLz1GF0wMBTHdFrCbaODZN4z-2O0au-7WYyuOoqH_SjokLiMmdvMX9ilQUXzKz1ZnBHocYXSNyvTED5do6UC2nupQpjAd9dmttHy2IMS0LI5YGYLA5/s1600-h/untitled1.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114202637894940834" style="FLOAT: centre; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSmRdP_VnLw6o0XG3Vd1AsivkokFSLz1GF0wMBTHdFrCbaODZN4z-2O0au-7WYyuOoqH_SjokLiMmdvMX9ilQUXzKz1ZnBHocYXSNyvTED5do6UC2nupQpjAd9dmttHy2IMS0LI5YGYLA5/s200/untitled1.bmp" border="0" />नासा द्वारा लिया गया रामसेतु का छायाचित्र</a><br /><br /><br /><br />कुछ वर्षों पहले <a href="http://india.krishna.org/Articles/2002/10/002.html"> इसकॉन मंदिर</a> की वेबसाइट ने अपने एक लेख में लिखा था कि नासा द्वारा लिये गये कुछ छायाचित्रों में भारत और श्रीलंका को जोडने वाले उस सेतु के भी छायाचित्र हैं जिसका प्रयोग भगवान राम ने त्रेतायुग मे असुर रावण की लंका नगरी तक जाने के लिये किया था। और इस सेतु की संरचना और बनावट यह दर्शाती है कि यह एक मानव निर्मित सेतु है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार श्रीलंका मे मानव जीवन की शुरुआत लगभग 1,750,000 वर्षों पूर्व हुई थी और इस सेतु की उम्र भी लगभग इतनी ही बताई जा रही है।<br />अब अगर ये लेख सच है तो फिर यह रामायण की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिये एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है। क्योंकि त्रेतायुग, जिसमें रामायण घटित हुई, का काल भी लगभग यही था यानि 1,700,000 वर्ष पहले। परंतु यहां एक बहुत बडी समस्या यह उत्पन्न होती है कि अभी तक जो अवशेष मिले हैं उनसे यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी पर वर्तमान मानव होमोसेपिअंस की शुरुआत 150,000 से 180,000 वर्षों पहले ही हुई है। और आदि मानव यानि होमोइरेक्टस अफ्रिका से लगभग 750,000 वर्षों पहले ही बाहर निकले हैं। यदि इन तथ्यों की माने तो 1,700,000 वर्षों पहले तो एक कुल्हाडी भी नहीं थी रामायण मे उपयोग में लाये गये हथियार तो बहुत दूर की बात है। परंतु यहां एक बात और गौर करने वाली है कि यदि यह मान लिया जाये कि रामायण पूर्णतः काल्पनिक है तो क्या उस समय किसी व्यक्ति के लिये इतने उन्नत हथियारों की कल्पना करना संभव था? तो इसके लिये यह कहा जा सकता है कि जब एच.जी.वेल्स टाइम मशीन की कल्पना कर सकते हैं तो वाल्मिकि इन हथियारों की क्यों नहीं।<br />अब यदि विज्ञान और आस्था के मध्य फंसे इस विषय के प्रभाव की बात करे तो क्या हम अपनी आने वाली पीढी को कहीं गुमराह तो नहीं कर रहे? क्यों कि यदि कोई रामायण या अन्य धर्मग्रंथ की सार्थकता या उसकी प्रमाणिकता से संबंधित सवाल पूछता है तो हम उसे चुप करा देते हैं। और आज कल विद्यार्थियों को विज्ञान और आध्यात्म दोनो विषय एक साथ पढाए जाते हैं। और यदि कोई विद्यार्थी या व्यक्ति यदि विज्ञान की प्रमाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो उसे निहायत ही मूर्ख कहा जाता है और यदि वह इन ग्रंथों की प्रमाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो आज भी उसके साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाता है जैसा कि गेलीलियो के साथ तब किया गया था जब उसने यह घोषित किया था कि सूर्य पृथ्वी के चक्कर नही लगाता बल्कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। और यदि आज 21वीं सदी में भी यदि हम यही मानसिकता विकसित कर रहे है तो इसमें कोई दो राहें नहीं कि हमारी आने वाली पीढी भी इसी बात पर विश्वास करेगी कि एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-41122324696440928452007-09-25T18:43:00.000+05:302007-09-26T03:02:22.454+05:30रामसेतु हेतु<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1xof4kYyGze8LKMS0XdJyC0DQz2-n8bxaDU4bfU7uNfiLt_FI66jS2950txdvvoRiUvboYsU0OKzkRV35DcZPQ2XY7H8nOAU3i6as_KDOQyjyFzbvAcui1_Z-HpMywgrAg2erKxRP1hi5/s1600-h/NASA_satellite_photo_of_Rama's_Bridge.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5114129979933194338" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1xof4kYyGze8LKMS0XdJyC0DQz2-n8bxaDU4bfU7uNfiLt_FI66jS2950txdvvoRiUvboYsU0OKzkRV35DcZPQ2XY7H8nOAU3i6as_KDOQyjyFzbvAcui1_Z-HpMywgrAg2erKxRP1hi5/s320/NASA_satellite_photo_of_Rama%2527s_Bridge.jpg" border="0" /> नासा द्वारा ली गयी रामसेतु की तस्वीर </a> <br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br />बहुत दिनो से राम सेतु विवाद पर सुन और पढ रहा हूं। तो मुझे यह लग रहा है कि हिन्दुस्तान की राजनीति को क्या हो गया है जो तिल जैसे मुद्दे को ताड़ जैसा मुद्दा बना दिया। दरअसल रमसेतु पर जो भी विवाद है उस सारे विवाद की जड़ है सेतुसमुद्रम केनाल प्रोजेक्ट। अगर यह प्रोजेक्ट ना होता तो यह विवाद भी उतपन्न न होता। तो अब सवाल यह उठता है कि यह सेतुसमुद्रम केनाल प्रोजेक्ट है क्या और इसके फायदे और नुकसान क्या हैं। बात यह है कि सेतुसमुद्रम केनाल प्रोजेक्ट के माध्यम से सरकार रामसेतु या अडम्स ब्रिज को बीच मे से काट कर बडे-बडे जहाज़ों के लिये रास्ता बनाना चहती है। इससे सीधा-सीधा लगभग 350 नॉटिकल माइल्सय फिर 650 किलो मीटर का रास्ता कम हो जायेगा जिससे व्यवसाय मे बहुत मुनाफा होगा। और भारत को उसके अर्थिक सशक्तिकरण में काफी सहायता करेगा।<br /> परंतु वहीं इस परियोजना के पूर्ण हो जाने के बाद वहां के लगभग 200,00,000 मछुआरों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा। इतना ही नहीं बल्कि आगे अगर कभी सुनामी तूफान आया तो उसके प्रभाव को भिइ बढा देगा और इस परियोजना के पूर्ण हो जाने के बाद भारत को उसके थ्योरिअम डिपोज़िट्स भी बहुत कम हो जायेंगे जो कि न्यूक्लिअर रिएक्टर के ईंधन के रूप में काम आ सकते हैं।<br /> तो यदि इस नज़रिये से देखें तो सेतुसमुद्रम केनाल प्रोजेक्ट् से लाभ कम और हानियां ज़्याद हैं। और जो लाभ हैं वह भी देश के पूंजिपतियों के लिये ज़्यादा है और आम भारतवासियों के लिये कम। और रही बात इस प्रोजेक्ट के दूरी वाले एक मात्र लाभ की तो मध्य पूर्व, अफ्रिका, मॉरीशस, एवं यूरोप से आने वाले जहाज़ों को इस परियोजना से केवल 8-10 घंटों का ही लाभ होगा। और वर्तमान कीमत को देखा जाये तो यदि यूरोप या अफ्रीका से आने वाले जहाज़ इस केनाल का उपयोग करेंगे तो वर्तमान दर के हिसाब से उन्हें प्रति यात्रा पर लगभग 4992 डॉलर का घाटा होगा और यह घाटा इसीलिये महत्वपूर्ण है क्यों कि इस रास्ते का उपयोग करने वाले 65% जहाज़ यूरोप और अफ्रीका के ही होंगे। और यदि कीमतों को इतना घटाया गया कि इन जहाज़ों को घाटा न हो तो इस परियोजना की आई.आर.आर.(इंटरनल रिटर्न रेट) 2.6% तक गिर जायेगी। और यह वह स्तर है जिस पर प्रशासन द्वारा जन-उपयोगी अधोसंरचनाओं की परियोजनाएं भी अस्वीकार कर दी जाती हैं।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-40076556383278774282007-09-25T01:29:00.000+05:302007-09-25T01:34:36.096+05:30भारत ने पाकिस्तान को पछाड़ाआज दो खबरों पर एक साथ नज़र पडी पहली तो यह कि भारत ने 20-20 विश्व कप मे पाकिस्तान को हराया और दूसरी यह कि ब्रिटेन के लंदन शहर में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त सामुदायों में भारतीयों की संख्या पाकिस्तानियों से अधिक है और इस सूची में भी भारत ने पाकिस्तान को पछाड़ दिया है। एक साथ दो-दो क्षेत्रों मे पाकिस्तान को पछड़ना किसी भी हिन्दुस्तानी के लिये गर्व की बात होती है चाहे वह क्षेत्र कोई भी क्यों न हो।<br />यदि फाइनल मैच की बात करें तो जीत के बाद सभी चैनलों ने बाकी सभी समाचारों को छोड़ कर बस मैच और जीत के जश्न के फुटेज दिखाने शुरू कर दीं। और इन फूटेज्स में मुख्य बात जो नज़र आयी वह यह थी कि अधिकतर लोगों को भारत के जीतने की खुशी से अधिक पाकिस्तान के हारने की खुशी थी। जहाँ देखो वहाँ हिन्दुस्तान के समर्थन में कम और पाकिस्तान के विरोध में ज़्यादा नारे लगाए जा रहे थे। मैं भी भारत की जीत पर उतना ही खुश होता हूं जितना कि कोई अन्य भारतवासी परंतु मैं सिर्फ भारत की जीत का ही जश्न मनाता हूं न कि किसी अन्य की हार का। और मैं अपने अन्य भारतीय बन्धुओं से भी यही अपेक्षा रखता हूं कि वे भी सिर्फ भारत की जीत का ही जश्न मनायें। क्योंकि भारत की रीति सदैव से प्रीत ही रही है न कि दुर्भावना या द्वेश। और यही करण है कि आज भी भारत की संस्कृति अक्षुण्ण एवं समस्त संस्कृतियों में अग्रणी है।<br />और अब अगर दूसरी खबर की बात करें और लंदन पुलिस के आंकडो पर गौर करें तो हम पाते हैं कि ब्रिटेन में आपराधिक गतिविधियों मे लिप्त अप्रवासी सामुदायों मे भारतीय 748 अपराधों, जिनमें 235 हिंसक अपराधों की श्रेणी में आते हैं, के साथ आठवे स्थान पर हैं जबकि पाकिस्तानी 591 अपराधों, जिनमें 177 हिंसक अपराध शामिल हैं, के साथ दसवें स्थान पर हैं। परंतु यहां मैं यह कहना ज़रूरी समझता हुं कि इन आंकडो का अर्थ यह कतई नही है कि सभी भरतीय अपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं। और यदि कोई व्यक्ति इन आंकडो को देख कर यह धारणा बना लेता है तो वो सर्वथा अनुचित है। क्योंकि किसी सामुदाय य मुल्क के कुछ लोगों की गतिविधियों य उनके कार्यों का हवाला दे कर उस सामुदाय या देश के प्रति किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर कोई धारणा बना लेना बिल्कुल गलत है। इस विषय पर लिखा तो बहुत जा सकता है परंतु मैं अपने आप को सिर्फ इतना ही कह कर विराम दूंगा कि <em><span style="color:#ff0000;">बलवाइयों का न तो कोई धर्म होता है और न ही कोई मुल्क</span></em>। और यह बात किसी और मुल्क के लिये भी उतनी ही सच है जितनी कि हमारे लिये।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-76112394292170218662007-09-24T12:09:00.000+05:302007-09-24T12:12:45.644+05:30स्थायित्व और भारतीय<span > </span><span >अभी हाल ही में महेन्द्र सिंह धोनी को भरतीय क्रिकेट टीम का कप्तान चुना गया।और ज़ाहिर सी बात है कि जमशेदपुर से उठे इस खिलाडी के द्वारा प्राप्त की गयी इस उपलब्धि का जश्न न केवल जमशेदपुर में बल्कि पूरे हिन्दुस्तान में मनाया गया। मनाया भी जाना चाहिये क्यों कि महज़ तीन साल में भरतीय क्रिकेट टीम के कप्तान का पद प्राप्त करना कोई हंसी खेल थोडे ही है। और वर्तमान 20-20 विश्व कप के फाइनल में पहुँचने वाले वाक़्ये ने तो इस बात में और चार चाँद लगा दिये। जश्न अपने चरम पर पहुंच गया। और यदि भारत यहाँ कप जीत जाता है तो हमारे देश के करोडों लोग पूरी टीम और खास कर महेन्द्र सिंह धोनी को सिर आँखों पर बिठा लेगी।<br /> परंतु हम हिंदुस्तानियों की यह कमज़ोरी समझ लीजिये या फिर ताकत कि हम हर चीज़ को बहुत जल्दि भुला देते हैं। मैं ऐसा इसी लिये कह रहा हूं क्यों कि यह वही लोग हैं जिन्होने विश्व कप मे पराजय के बाद धोनी के घर पर पथराव किया था और उन्हे ज़ेड सुरक्षा लेने के लिये मजबूर कर दिया था। हम लोग बहुत जल्दि किसी को अपने सिर पर चढा भी लेते हैं और उतनी हि जल्दि उसे उतार भी देते हैं। सचिन, गंगुली, कपिल, अज़हर, जडेजा, कपिल जैसे न जाने कितने ही उदाहरण हमे मिल जायेंगे जो हमारी नज़रों में चढे, उतरे और फिर चढे। परंतु स्थायित्व किसी को नहीं मिल पाया।<br /> कहा जाता है ना कि जहां पानी के बहाव में स्थायित्व आ जाता है वहां वह सडने लगता है। शायद इसी लिये हम किसी को भी अपनी नज़रों में स्थायित्व नहीं देते। </span>विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8379168761165639569.post-17121206337737069682007-09-24T02:04:00.000+05:302007-09-24T02:09:16.694+05:30सशस्त्र सैनाओं के पेंशन प्रावधानवर्तमान नियमों के अनुसार भारतीय सशस्त्र सैनाओं में पेंशन लाभ प्राप्त करने के लिये कर्मचारियों को 15 वर्ष और अधिकारियों को 20 वर्ष के न्यूनतम सेवाकाल का प्रावधान है। इसका सीधा-सीधा तत्पर्य यहाँ हो जाता है कि यदि कोइ कर्मचारी 14 वर्ष 11 महीनों मे अपनी पारिवारिक परिस्थितिवश मजबूर हो कर या फिर अपनी किसी शारीरिक अक्षमता के वशीभूत हो कर सर्विस छोडता है तो भी वह पेंशन का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। <br /> भले ही यह स्थिति बहुत कम उत्पन्न होती है परंतु यह नियम यह सोचने के लिये मजबूर कर देता है कि एक व्यक्ति जिसने अपनी उम्र के चौदह वर्ष से अधिक का समय सेना को दिया हो और उस सेवाकाल में बिना अपनी जान और व्यक्तिगत ज़िन्दगी की परवाह किये देश की सुरक्षा के लिये दिये हों उसे महज़ कुछ समय की कमी के कारण पेंशन सुविधा से महरूम कर दिया जाता है। यहाँ इस बात से जुडी एक व्यवहारिक बात और सामने आती है और वह यह कि एक सैनिक की भर्ती के समय उसकी उम्र लगभग सत्रह से अठारह वर्ष होती है और यदि वह किन्हीं परिस्थितियों के कारण चौदह वर्षों में सैन्य सेवा से मुक्ति प्राप्त करता है तो उस समय उसकी उम्र हो जाती है लगभग तैंतीस वर्ष। और चूंकि सैना में कार्य करते हुये अमूमन व्यक्ति के सामाजिक जीवन की अनदेखी हो जाती है। तो अब जब वह तैंतीस वर्ष की आयु में सेवानिवृत हो कर आता है तो वह अपने आप को सैन्य परिवेश के बाहर के माहौल में अपने आप को ढाल नहीं पाता। और ना ही बाहर के कार्यिक परिवेश के अनुरूप अपने आप मे परिवर्तन कर पाता है। ऐसे मे इन लोगों के लिये सबसे बड़ा सहारा बचता है तो वो है पेंशन का। और जब उन्हें यहाँ नही मिलती तो वे अपने आप को बहुत असहाय महसूस करते हैं।<br /> इन सभी से महत्वपूर्ण और गंभीर बात यहाँ भी है कि सरकार का इस तरफ कोई ध्यान नहीं है और ना ही ऐसे भूतपूर्व सैनिकों जिनका सेवाकाल पंद्रह वर्ष से कम है उनके लिये कोई योजना है।विकास परिहारhttp://www.blogger.com/profile/07464951480879374842noreply@blogger.com1