Tuesday, October 23, 2007

व्यर्थ गंवाया अर्थ

हालाँकि नवदुर्गा उत्सव और दशहरे के सभी उत्सव खत्म हो चुके है परंतु उंकी खुमारी अभी भी सभी लोगों पर छाई ही होगी। अच्छा है कम से कम इन कुछ दिनों मे इतने सारे आयोजनो के माध्यम से लोग ईश्वर को उसके अस्तित्व का अह्सास दिला देते हैं। इन दिनो आयोजनों के नाम पर खूब पैसा इकट्ठा किया जाता है और उसे सजावट और विभिन्न कार्यक्रमों के भव्य आयोजनो के लिए खर्च भी किया जाता है। इन कुछ दिनों में शायद वे सभी लोग आस्तिक हो जाते हैं जिनका ईश्वर से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। ये लोग वर्ष भर तो गरीबों का खून चूस-चूस कर पैसा इकट्ठा करते हैं और इन कुछ दिनों में दिल खोल कर इन आयोजनों मे व्यय भी करते हैं। ऐसा लगता है जैसे भगवान को भी घूस दे रहे हों।
हिन्दुस्तान के अन्दर ऐसी कई मान्यताएं हैं जो मुझे अक्सर हास्यास्पद लगती हैं। और इन मान्यताओं का अनुशरण न करने के कारण मुझे कई बार कई प्रकार की यातनाओं का भी सामना करना पड़ता है। यहाँ तक की मेरे परिवार वाले भी मुझे नास्तिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। मेरा मन कभी भी यह स्वीकार नहीं कर पाता कि भगवान सिर्फ मन्दिर में ही है क्यों कि मैं तो बचपन से यही सुनता आया हूं कि वह सर्वव्यापी है, इसीलिए मैं मन्दिर नहीं जाता। और ऐसे ही न जाने कितनी ही मान्यताएं हैं जिन्हें मैं आस्था का विषय न मानकर सिर्फ ढकोसलों की श्रेणी में रखता हूं।
चलिए हम लोग विषय परिवर्तन न कर के सीधे अपने मूल विषय पर आते हैं। इस बार नवदुर्गा महोत्सव के समय हुए विभिन्न आयोजनों मे हुए व्यय के आँकड़े जब मेरे सामने आए तो एक तरफ तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ वहीं दूसरी तरफ दुःख भी। यदि जबलपुर शहर मात्र में हुए व्यय को ही लें तो इन दस दिनो में कुल मिला कर लगभग 25-30 लाख रुपयों का व्यय किया गया। एक ऐसा शहर जिसकी कुल आबादी लगभग 20 लाख है उसने नवदुर्गा महोत्सव मे 25-30 लाख रुपए खर्च किए। अब यदि इसी बात का दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात किया जाए तो यहाँ की कुल आबादी का 20% अर्थात लगभग4 लाख लोग घोषित रूप से गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें दोनो वक़्त ठीक ढंग से पर्याप्त मात्रा में भोजन भी नसीब नहीं होता। अब यदि इस धन को लोग ऐसे आयोजनों की भव्यता में खर्च न कर के इन लोगों के उन्नयन मे लगाते तो मेरा ख्याल है की हम अपने आप को ईश्वर के करीब ले जाने में अधिक सफल होते। किसी ने ऐसे ही नहीं कहा है कि :-
मस्ज़िद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।

1 Comment:

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