Tuesday, October 16, 2007

उसकी टी.आर.पी मेरी टी.आर.पी से ज़्यादा कैसे?

(पढ़ने वालों से अनुरोध है कि कृपया इस पोस्ट को दिल पर न लगाएं। यह मात्र एक हँसी ठठ्ठा है।)
भाई आज-कल एक अजीब सी लहर चली है टी।आर।पी। की। चैनलों वाले हमेशा इसी उहा पोह में लगे रहते हैं कि अपने विपक्षी चैनल के दर्शक कैट्से काटे जाएं। पेपर वाले सोचते हैं कि दूसरे के पाठक कैसे तोड़े जाएं। एफ।एम. वाले सोचते हैं की दूसरे के श्रोता कैसे छीने जाएं। जबरदस्त प्रतियोग्यता के इस दौर में हर संचार माध्यम को जैसे दस्त लग गए हों। कुपच हो गई हो।किसी और को हँसते खेलते खिलखिलाते देखना उन्हें पचता ही नहीं है। और यह कुपच भी ऐसी है कि यहाँ डॉक्टरों और हकीमों का कोई भी नुस्खा काम नही कर सकता। भाई ये अच्ची बात नईं है। जब सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हो तो सभी को मिल बाँट कर खाना चाहिए। पर अब वो बात कहाँ। चलो भाई मान भी लिया जाए कि प्रतिद्वन्दिता है तो कम से कम उसकी कोई सीमा तो होनी चाहिए। भाई प्रतिद्वन्दिता में जब नैतिकता का समावेश हो तो अच्छा लगता है। पर यहाँ तो नैतिकता को एक दम दरकिनार कर दिया गया है।
अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए कुछ चैनल भूत-प्रेतों का सहारा ले रहे हैं। बेचारे भूतों को ब्रेकिंग न्यूज़ बना कर दिखा रहे हैं। अरे यार जब एक चैनल में काम करने वाले इतने सारे ज़िन्दा कर्मचारी कुछ नहीं कर पा रहे तो ये बेचारे मरे हुए क्या कर लेंगे? हमें बस जे बात समझ नईं आती। और तो और एक बात और सोचने लायक है कि जब से धड़ाधड़ चैनलों की बाढ़ आई है तभी से एम.एम.एस. स्केंडलों की भी बाढ़ आई है। अब किसी लड़की को उसके अंतरंग पलों में धोखा दे कर अगर किसी ने एक एम.एम.एस बना दिया तो ये चैनल वाले उसी क्लिपिंग को दिन भर मे 120 बार दिखा कर तो वैसे ही छिनाल बना देते हैं। हद हो गई यार। अरे भैया मेरी मानो तो ये सब टुच्चे तरीके छोड़ो और अपनी गुणवत्ता पर ध्यान दो टी.आर.पी. अपने आप बढ़ जाएगी। क्यों कि जहाँ गुणवत्ता वाली चीज़ दिखाई देगी दर्शक की उंगली और नज़र वहीं ठहर जाएगी। नहीं तो आज-कल रिमोट कंट्रोल का ज़माना है और उस पर लोगों की उंगलियाँ भी बहुत तेज़ी से चलती हैं।

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© Vikas Parihar | vikas