Monday, October 15, 2007

एक तबका अभी भी छूट रहा है

चिट्ठों की शुरुआत हुए काफी समय बीत गया है। आज हिन्दी चिट्ठे अपने शैशवकाल से थोड़ा ऊपर उठ कर योवन के धरातल की तरफ अपने कदम बढ़ा रहे हैं। इतना ही नहीं चिट्ठों को मुख्य धारा के संचार माध्यमों के नए एवं सशक्त माध्यम के रूप मे भी देखा जा रहा है। यह स्वभाविक भी है क्यों कि चिट्ठों मे कमोवेश भ्रष्टाचार की संभावना कम है। इसका मूल कारण है इनके आर्थिक पहलू का न होना। जिस किसी भी चीज़ का आर्थिक पहलू नहीं होगा और जिसका उद्देश्य मात्र स्वयं का सुख और सेवा होगा वहां भ्रष्टाचार की संभावनाएं उतनी ही कम हो जाती है। अभी तक के सभी चिट्ठों को पढने के बाद एक बात जो सामने आई वह यह है कि आम तौर पर सभी चिट्ठों का सरोकार य तो साहित्य से है या फिर सामयिक राजनीतिक मुद्दों के विश्लेषण से। यहां एक तबका ऐसा रह जाता जो कि तथाकथित मुख्य धारा मे तो अपनी जगह बना ही नहीं पा रहा है परंतु भविष्य के वैकल्पिक मीडिया कहे जाने वाले इन चिट्ठों से भी अछूता रह गया है।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूं हमारे समाज के वंचित तबकों की। उन लोगों की जिन्हें दोनो वक़्त का भोजन भी सही ढंग से उपलब्ध नहीं हो पाता,कपड़ों के नाम पर जो महज़ कुछ चिथड़े अपने बदन पर लपेटे रहते हैं, उन लोगों की जो अपनी सारी ज़िन्दगी फुटपाथ पर ही बिता देते हैं। चिट्ठाजगत पर साहित्य की बातें होती हैं, जीवन की अनुभूतियों की बातें होती हैं, भाषा के उन्नयन की बातें होती हैं, राजनीति की बातें होती हैं अर्थिक नीतियों की बातें होती हैं पर फिर भी भारतीय समाज का यह यह एक बड़ा तबका जिन्हें हम वंचितों की श्रेणी मे रखते हैं।जिन्हे हमारे समाज ने एक दम हाशिए पर रख दिया है हमारे चिट्ठे जगत से एक दम छूट गया है। ऐसा नहीं है कि इनसे जुड़े मुद्दे लोगों को उद्द्वेलित नहीं करते परंतु अगर आवश्यक्ता है तो एक सार्थक पहल की। आवश्यक्ता है तो अपनी शक्ति को पहचान कर उसे एक दिशा देने की। अब यहाँ से तो सभी के व्यक्तिगत विचारों का मंथन प्रारंभ होता है। तो मित्रो चलो हम सब अपने विचारों के मंथन मे थोड़ी जगह इन लोगों को भी दें। मुझे यकीन है कि इस मंथन में भी कुछ महत्वपूर्ण रत्न निकल कर आएंगे। मैं जानता हूं कि मेरे चिट्ठे की पठनीयता इतनी अधिक नहीं है कि वह अधिक लोगों को प्रभावित कर पाए परंतु यदि मेरा यह सन्देश यदि किसी एक व्यक्ति को भी इन मुद्दों पर लिखने के लिए प्रेरित कर पाया तो मैं समझूंगा कि मेरा लिखना सार्थक रहा। नहीं तो "एकला चलो" का नारा तो साथ है ही। अकेले इस सफर की शुरूआत की है अकेले ही चलूंगा। पर फिर भी यह अवश्य कहूंगा कि "आओ पहल करें"

3 Comments:

अनिल रघुराज said...

विकास जी, चिंता और मांग दोनों ही जायज हैं। हम लोग छात्र जीवन में अवधी में एक धोबिया गीत गाते थे जिसकी शुरुआती लाइनें थी - धरे रसे-रसे अगिया, धुआंइ द्या...तो आग धीरे-धीरे सुलगेगी, धुआं तो उठना शुरू ही हो गया है।

विकास परिहार said...

अनिल जी में सिर्फ एक चीज़ चाहता हूँ:
मेरे सीने में नही तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।

Udan Tashtari said...

चिन्ता जायज है बन्धु.

और अनिल जी के लिये शेर भी बेहतरीन चुन कर लाये हो..

 

© Vikas Parihar | vikas