Monday, October 8, 2007

ये विकास का मामला है।

आज कल भूख, गरीबी, शिक्षा, बेरोजगारी आदि जैसे विकास के मुद्दों पर बात-चीत करना फैशन हो चला है। किसी चाय या सिगरेट की दुकान पर ही यदि खड़े हो लिया जाए तो महज़ पाँच मिनिट के अंतराल में आप दो-तीन लोगों को इन मुद्दों पर बात करते हुए देख लेंगे। ऐसी ही एक हवा मीडिया जगत में भी चली है। इस विषय पर मीडिया से संबंधित लोग प्रायः बात करते ही रहते हैं। ऐसे वार्तालापों में एक बहुत अजीबोगरीब बात सामने आती है कि जहां एक ओर मीडिया संस्थानों के रिपोर्टरस और संवाददाताओं का कहना है कि ऐसे मुद्दों से जुड़ी खबरों के लिए समाचार-पत्रों मे जगह नहीं दी जाती वहीं संपादकों एवंउप संपादकों का कहना है कि इस तरह के समाचार ही नहीं लाए जाते वरना हमारी पूरी कोशिश होती है कि ऐसे मुद्दों को उचित जगह दी जाए। यदि इन दोनों के पक्षों की बात मान ली जाए तो अब सवाल यह उठता है कि यदि दोनों अपनी जगह सही हैं तो गलत कौन है और इन दोनो के बीच ऐसा कौन है जो ऐसे मुद्दों को बीच में ही हजम कर जाता है। और यदि ऐसा कोई नहीं है तो फिर झूठ कौन बोल रहा है।
पर भाई सच और झूठ के फेर में हम न पड़ें तो ज़्यादा बेहतर होगा क्यों कि सारी दुनिया इसके पीछे पड़ी हुई है। अब जहाँ तक समाचार पत्रों मे ऐसे मुद्दों को जगह देने की बात है तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब भी मैने ऐसे मुद्दों पर लिखा है तब तब मुझे स्पेस मिला है। और सिर्फ मिला ही नहीं अच्छा-खासा मिला है। फिर ये बात तो बेमानी हो जाती है कि जगह नहीं मिलती। यहाँ बस यही कहना रह जाता है कि इन मुद्दों पर काम करना हर कोई चाहता है। बात हर कोई करता है। पर बात और बहस करने और चाहने के बीच और होने के बीच एक सेतु होता है वो है कोशिश का। और कमी यहीं रह जाती है कि लोग एक ईमानदार कोशिश नहीं करते।
पर भाई आज-कल फैशन सिर्फ बातचीत करने का चल रहा है न कि कोशिश करने का। जब कोशिश करने का फैशन शुरू होग तब हम भी करेंगे अभी से क्यों अपना सर इन फालतू मुद्दों के लिए धुनें।

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© Vikas Parihar | vikas