Wednesday, October 3, 2007

सिमटते संसार में सिमटते लोग

आज पूरे विश्व ने सिमट कर एक विश्वग्राम का रूप अख्तियार कर लिया है। और यदि तरक्की इसी रफ्तार से ज़ारी रही तो कुछ वर्षों मे यह विश्वग्राम एक विश्वगृह के रूप मे भी हमारे सामने आ जाए तो इसमे अचम्भा नहीं होगा। परंतु इस तेज़ी से हो रहे बदलाव के साथ और क्या-क्या बदलाव आए हैं इसका मूल्यांकन करना भी बहुत आवश्यक हो गया है। मूल्यांकन इस बात का कि तेज़ी से की गई इस प्रगति में हमने क्या-क्या पाने की चाह मे क्या-क्या खो दिया है।
मुझे याद है हमारे बचपन में यदि किसी पर्व के समय गाँव मे किसी की मृत्यु हो जाया करती थी तो उस वर्ष पूरे गाँव मे वह पर्व नहीं मनाया जाता था। परंतु आज यदि हमारे घर के बगल वाले घर मे भी किसी की मृत्यु हो जाती है तो हमारे घर के कार्यों मे कोई असर नहीं पड़ता। वे अपनी गति से सुचारू रूप से चलते रहते हैं। पहले एकल परिवार प्रणाली में एक परिवार के सभी लोग एक साथ रहते थे। सभी बड़े-बुजुर्ग एक आशिर्वाद के रूप में उस घर में रहते थे परंतु आज बाकी लोग तो छोड़ो अपने माता-पिता को भी लोग घर की अपेक्षा बुजुर्ग-घर(ओल्ड एज होम्स) में रखना पसंद करते हैं। पहले यदि घर मे कोई अनहोनी हो जाती थी तो संबल देने के लिए भरा पूरा परिवार हुआ करता था पर आज ऐसे समय भी परिवार के लोग ही मेहमान की तरह आते हैं। पहले जब दोस्तों से मिलते थे तो खुशी अंदर से आती थी पर आज यदि गाहे बगाहे कोई दोस्त मिल भी जाता है तो लोग बनावटी हँसी का एक मुखोटा लगा कर मिलते हैं। और उनकी हँसी महज़ एक एहसान की तरह प्रतीत होती है जो वे लगातार एक दूसरे पर करते रहते हैं और कृतार्थ होते रहते हैं। यदि याद करने बैठो तो ऐसे ही न जाने कितने बदलाव हमारी नज़रों के सामने से एक तीर की तरह गुज़र जाते हैं।
और अब यदि हम इस वैश्वीकरण की उपलब्धियों के बारे में सोचें तो हमने बेशक आर्थिक विकास किया है और इंसान आर्थिक रूप से बहुत संपन्न हो गया है पर न तो उसे सुकून है और न ही वह संतुष्ट है। उसके पास भोजन के अपार भंडार हैं पर भूख नहीं है। संतुष्टि, प्रेम, अपनत्व आदि जैसे अनेकों शब्दों को हमने हाशिए पर ला दिया है और ये शब्द आजकल मात्र किताबों में ही मिलते हैं। लोगों के पास पीने के लिए बिसलरी तो है परंतु वो प्यास नहीं है न पानी की, न रिश्तों की, न प्रेम की। इस बात पर ज्ञानरंजन जी की कुछ पंक्तियां सहसा ही याद आ जाती हैं कि "हमारे संसार मे अब प्यासे लोग दुर्लभ हैं। लोग तृप्त हैं, एक मार्गी हैं, चपल और सफल हैं। उन्हें पत्थर तोड़ने, लड़खड़ा कर चलनेकी व्यर्थता का पता चल गया है।"
क्या यही है सही मानों में वैश्वीकरण?

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© Vikas Parihar | vikas