Tuesday, October 2, 2007

अस्तित्ववाद और गांधी जी

आज के वार्तमान युग में हम सभी अपने अस्तित्व को बचाए रखने की अंधी दौड़ में भगते जा रहे हैं। किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि वो अपने बारे में सोचे तो दूसरों के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात है। क्यों कि अगर थोड़ी सी भी लापरवाही हुई तो अपने अस्तित्व की रक्षा में जो भी किया गया है वो सब व्यर्थ हो जाएगा। ऐसे समय में गांधी जी के आदर्शों का पालन करना तो दूर उनकी तरफ ध्यान देना भी कठिन हो गया है। इसी लिए आज गांधी जैसे शास्वत सत्य को भी सिर्फ कुछ खास पर्वों पर ही याद किया जाता है। या फिर तब याद किया जाता है जब अपनी निर्बलता को अहिंसा के जामे में छिपाना हो। इसक अलावा उन्हे हमारी स्मृतियों के आस-पास भी नहीं फटकने दिया जाता। यदि आज की पीढी को लिया जाए तो अधिकतर उनके आदर्शों को खोखला और वर्तमान समय के हिसाब से बेमानी बताते हैं। कहते हैं कि उस समय भले ही अहिंसा और सत्य के सहारे कुछ भी हासिल किया जाना संभव रहा हो परंतु आज इन आदर्शों के बल पर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। परंतु हमारे देश की यह भावी पीढ़ी यह भूल जाती है कि गांधी जी और उनके आदर्श तब जितने शास्वत और स्थाई थे आज भी उतने ही हैं बस अगर कहीं कमी रहती है तो वो रह जाती है पूरी ईमानदारी और सच्चाई से उन्हें अपने जीवन में उतारने की और उनका अनुशरण करने की। क्यों कि यही वे सिद्धांत और आदर्श हैं जिन्होने गान्धी को गान्धी बनाया और उन्हें आज भी जीवित रखा है। दरअसल गांधी सिर्फ एक इंसान नहीं थे बल्कि कालंतर में वे एक विचारधारा बन गए हैं। एक ऐसी विचारधारा जो समय और काल के बंधनो से मुक्त है और जिसका अस्तित्व अक्ष्क्षुण्ण है।

2 Comments:

अनिल रघुराज said...

आदर्श तो आदर्श ही होते हैं। हां, गांधी की बातें आत्मबल हासिल करने का माध्यम जरूर बन सकती हैं।

सुबोध said...

विकास जी..हम सब जिस चक्रव्यूह में फंस चुके हैं..उससे निजात हमें ही पाना होगा..गांधी जी के लिए जिंदगी में स्पेस लगातार कम होती जा रही है..कहीं ऐसा ना हो कि हम आगे के दिनों में गांधी नाम को मिथक मान बैठें..मुझे लगता है गांधी की जगह आसपास हमें ही बनानी पड़ेगी.उदाहरण वो सिनेमा है..जिसने फिलहाल गांधीवाद को गांधीगिरी में तब्दील कर कुछ लोगों तक तो पहुंचाया..

 

© Vikas Parihar | vikas