Saturday, September 29, 2007

ईश्वर नाम की तराज़ू

जोश मलीहाबादी का एक शेर है:-
इंसां का खून खूब पियो इज़्बे आम है।
अंगूर की शराब का पीना हराम है।
दरअसल इंसानो की इस दुनिया में इंसानो ने ईश्वर को खोज निकाला जिससे कि उसे तराज़ू की तरह उपयोग में लाया जा सके। उसके माध्यम से सही-गलत, अच्छे-बुरे, सच-झूठ आदि को तौला जा सके। ईश्वर की खोज एक आदमी को इंसान और जंगल को बस्ती बनाने के लिए भी आवश्यक थी परंतु समय के साथ आदमी उस तराज़ू का उपयोग कर के इंसान तो नहीं बन पाया परौसने इस तराज़ू को ज़रूर अलग अलग नामों से बाट डाला और इस तराज़ू के बंटने से धरती भी कई टुकड़ों में बंट गई। आदमी को इंसान बनाने के लिए ज़मीन पर जो वरदान उतरा था उसे इन आदमियों ने एक अभिशाप का रूप दे दिया। ये वही ईश्वर था जो भले ही अलग-अलग नामो से जाना जाता हो पर सिखाता सभी को प्रेम और सौहाद्र से रहना ही था। हर धर्म नाम से भले ही कितना ही भिन्न क्यों न हो पर उसकी सीख हमेशा भेद-भाव रहित जीवन ही रही है। जहाँ हिंदू धर्म मे ईश्वर कण-कण मे बसता है वहीं इस्लाम में वह तमाम आलमों का रखवाला है। बाईबल में जब प्रकाश को जागृत होने का हुक्म दिया गया था तो वह रोशनी सारे संसार के लिये थी न कि केवल ईसाईयों के लिये। नानक ने भी एक ही नूर से सारे जग के उपजने की सीख दी है। और कबीर ने तो इन सभी बातें का और धर्मग्रंथों का सार ही सिर्फ ढाई अक्षरों मे दे दिया-प्रेम। परंतु कालांतर में हमने इन सभी को बस अपने स्वार्थ के लिये ही प्रयोग करना शुरू कर दिया। और आज भी हम सब इन सभी पवित्र ग्रंथों को, इनकी शिक्षाओं को,इनके नामो को बस अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये तोड मरोड़ कर इन्हे इनके मूल रूप से विकृत कर अपने अनुरूप ढाल कर प्रस्तुत करने में लगे हुए हैं। जो सारे विवादो, सारी विकृतियों, सारी परेशानियों की जड़ है।
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© Vikas Parihar | vikas