Monday, October 1, 2007

भारत के कपूत-"महारथी"

आज शास्त्री जी के सारथी की एक पोस्ट के माध्यम से मैं एक महारथी जी से मिला। इनका नाम है जगत चंद्र पटराकर ये दर असल अपना तकल्लुस महारथी लगाते हैं। भाई साहब अंग्रेज़ी के अनन्य भक्त हैं और हिन्दी को भी रोमन लिपि में लिखने की वकालत करते हैं। इनके ब्लॉग का नाम है हंगामा है क्यूं बरपा । अरे भाई साहब जब आप मातम में जाकर हँसोगे तो भद्रा ही उतरेगी मुद्रा तो नहीं मिलेगी। मांफ कीजिएगा अपने इस सन्देश मेरी भाषा अपने स्तर से थोड़ा नीचे आ गई है। मैं तो बहुत कोशिश कर रहा हूं कि कुछ बुरा य अपशब्द न निकले पर क्य करूं। मैं जब किसी दूसरे की माँ का अपमान नहीं करता तो अपनी माँ का अपमान कैसे सहन कर सकता हूं? इसीलिए मैं अपने चिट्ठे के इस सन्देश के लिए अपनी भाषा के स्तर से थोड़ा नीचे आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। हाँ तो हम बात कर रहे थे इन महाशय महारथी जी की तो ये माननीय अपने चिट्ठे को देवनागरी में लिख कर हमारी देश की भाषाओं को रोमन लिपि मे लिखने का प्रचार कर रहे हैं। यानि महाराज जिस थाली में खा रहे हैं उसी में छेद कर रहे हैं। इतना ही नहीं इन्होंने अपने एक और बुद्धिहीन मित्र मधुकर एन. बोगटे जी के साथ मिल कर एक संस्था रोमन लिपि परिषद का भी निर्माण किया है जो इनके इस बेबकूफी भरे कार्य का प्रचार-प्रसार करेगी। और हां ज़रा इनकी हिमाकत तो देखिए ये हिन्दी चिट्ठाजगत मे आकर हिन्दी वालो से ये अपेक्षा रख रहे हैं कि हम लोग इन लोगों की इस निकृष्ट संस्था में शामिल होंगे। मुझे दुष्यंत जी का एक शेर याद आ रहा है:-
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें।
चाकू की पस्लियों से गुजारिश तो देखिए।
यह शेर शायद इन्हीं जैसे तुर्रमखानों से प्रेरित हो कर लिखा गया होगा। और हां शायद दुनिया के 140 विश्वविद्यालयों का संचालन मूर्ख कर रहे हैं जहां हिन्दी पढाई जा रही है। शास्त्री आप, समीर भाई आप, संजय बेंगाणी जी आप, रवि भाई आप और हिन्दी चिट्ठा जगत के सभी चिट्ठाकार भाईयो हम सभी बेबकूफ हैं जो यूं ही हिन्दी का परचम अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर फहराने के लिए मरे-खपे जा रहे हैं। सिर्फ यही एक बुद्धिजीवी बचे हुए हैं धरती पर। अब पत नहीं बुद्धिजीवी या बुद्धूजीवी।
और महाशय महारथी जी आपके चिट्ठे पर दो टिप्पणियां छोड़ कर आया हूं इस उम्मीद में कि टिप्पणियाँ पढ़ कर तो आप यहाँ आयें और यह लेख पढ़ें। और हां आप इतने बड़े ज्ञानी बन रहे हैं आपको एक खुली चुनौती है। भारत की भाषाओं को रोमन लिपि में तो बाद में लिखिएगा अगर हिम्मत है तो उसके लिए पहले अपने स्वतंत्र स्वरों की व्यवस्था कर दीजिए बेचारी अपने उच्चारण के लिए अभी भी हिन्दी पर ही निर्भर है। और हां चूंकि ये हिन्दुस्तान है इसीलिये आप इतना कहने के बाद भी अभी तक सही सलामत हैं। अंत में एक बात और:-
जिसको न निजि भाषा, न निजि राष्ट्र का अभिमान है।
वो हृदय नहीं है पत्थर है और मृतक समान है।
महारथी जी आप सही में मर चुके हैं।

5 Comments:

ePandit said...

इन महोदयों की बुद्धि पर तरस आता है। लिपि किसी भी भाषा की आत्मा होती है। उसके बिना भाषा की सुन्दरता ही नष्ट हो जाती है।

देवनागरी जो कि संसार की सबसे वैज्ञानिक लिपि है, उसको छोड़ ये लोग रोमन का पक्ष ले रहे हैं जो कि अत्यंत हास्यास्पद है।

फिलहाल आप चिंतित न हों, ऐसे अक्लोमंदों के प्रयासों से लोग देवनागरी छोड़ रोमनागरी नहीं अपनाने वाले।

Shastri JC Philip said...

प्रिय विकास

भारतीय लिपियों को छोड अंग्रेजी अपनाने की वकालात के विरुद्ध मेरे आह्वान को गंभीरता से लेकर आज ही एक लेख लिखने के लिये आभार. कई लोगों को विषय की गंभीरता का अनुमान नहीं है.


बहुत कम भारतीय इस बात को जानते हैं कि कि उत्तरपूर्व की अलिखित भाषाओं को देवनागरी के बदले अंग्रेजी (रोमन) लिपि प्रदान करने के
कारण आज देश में विघटन का कैसा खतरा खडा हो गया है. उत्तरपूर्वी लोग हिन्दुस्तान के साथ एकसार होने के बदले बोली, रंगढंग, संस्कार, संस्कृति, हर चीज में अंग्रेजी-बोल देशों को "अपना" एवं हिन्दुस्तान को पराया देश समझने
लगे हैं.

मैं ने जो चिट्ठा आज लिखा था वह ठोस एतिहासिक तथ्यों पर आधारित है कि कुछ चीजों को नजरअंदाज करने के परिणाम बहुत बुरे हो सकते हैं. अत: इस प्रस्ताव का (कि भारतीय भाषाओं के अक्षर ऊटपटांग है अत: उनको रोमन लिपि में लिखा जाये) वैज्ञानिक आधार पर विरोध
करना जरूरी है -- नखशिखांत विरोध करना जरूरी है -- शास्त्री जे सी फिलिप

जिस तरह से हिन्दुस्तान की आजादी के लिये करोडों लोगों को लडना पडा था, उसी तरह अब हिन्दी के कल्याण के लिये भी एक देशव्यापी राजभाषा आंदोलन किये बिना हिन्दी को उसका स्थान नहीं मिलेगा.

विकास परिहार said...

शास्त्री जी जो लोग इस बात की गंभीरता को समझ नहीं पा रहे हैं। उन लोगों के लिए तो मैं कुछ नहीं कह सकता परंतु मैं स्वयं इस विषय को बड़ी गंभीरता से लेता हूं। और आवाज़ उठाने में भी पीछे नहीं हटूंगा। क्यों कि मेरी आंतरिक इच्छा है कि मैं हिंदी की तन, मन धन से सेवा कर सकूं। हालांकि मेरे ब्लॉग की पठनीयता इतनी अधिक नहीं है कि कुछ विशेष असर डाल सकें परंतु मैं अपनी कोशिश ज़ारी रखूंगा देश और भाषा के उत्थान के लिए। रामायण में भले ही याद सुग्रीव, जमवंत, हनुमान आदि को ही किया जाता है परंतु राम की जीत में योगदान तो सैकड़ों गुमनाम वानरों का भी था। भले ही मैं उन गुमनाम वानरों की तरह ही क्यों न रहूं पर मुझे अपने योगदान पर खुशी है और आत्म संतुष्टी है कि भाषा के उत्थान में मेरा योगदान तो है भले ही वो छोटा ही सही।
कहा गया है न:-
आकार में चाहे छोटा हूं मैं,
हूं मैं आंसू एक।
सागर जैसा स्वाद है मुझमें ,
चख कर के तो देख।

सुबोध said...

विकास जी..हिन्दी को लेकर आपके जज्बे की तारीफ होनी चाहिए..लेकिन अगर संवाद में उत्तेजना से ज्यादा समझदारी हो तो शायद हम सबकी बात दूर तक जाएगी...

सुबोध said...

विकास जी..हिन्दी को लेकर आपके जज्बे की तारीफ होनी चाहिए..लेकिन अगर संवाद में उत्तेजना से ज्यादा समझदारी हो तो शायद हम सबकी बात दूर तक जाएगी...

 

© Vikas Parihar | vikas