Friday, September 28, 2007

सैनिकों और अधिकारियों के बेतनमान मे अंतर

जो पुल बनायेंगे,
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएंगे
सेनाएँ होंगी पार
मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएंगे।

-:अज्ञेय:-

हमारे हिन्दुस्तान मे यह प्रथा पुरातन है कि एक लड़ाई में मरें चाहे कितने ही सैनिक परंतु चक्र सदैव नेतृत्वकर्ता को ही प्राप्त होता है। एक राज्य या एक देश की इमारत न जाने ऐसे कितने ही महान और गुमनाम सैनिकों के बलिदान की नींव पर खड़ी होती है। और यह उन जाँबाज सैनिकों का जज़्बा होता है कि वह इसके बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखते। परंतु ऐसे मे यह हमारी और हमारे प्रशासन की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि हम ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने दे जिससे उन सैनिको मे ग्लानि और हीन भावना का बोध पैदा हो।
परंतु आज भारतीय सैनिको मे न केवल हीन भावना का बोध ही देखा जा रहा है बल्कि उन्मे सरकार के प्रति रोष बी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसका एक मुख्य कारण है उनके वेतनमान मे अनियमित अंतर। जी हाँ यदि हम वर्तमान मे भारतीय सशस्त्र सैनाओं के अधिकारियो और जवानो के मूल वेतनमान के अंतर को देखें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह किस हद तक अनियमित है। उदहरण के लिये जब एक अधिकारी भर्ती होता है तो उसका मूल वेतनमान 8250 रुपये मासिक होता है जबकि वहीं एक सिपही का मूल वेतनमान 3250 रुपये मासिक है। यदि थोड़ा और विस्तार से देखा जाये तो एक सिपाही अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा कर सूबेदार मेजर की रेंक तक पहुचता है जिसका मूल वेतनमान 6750 रुपये मासिक होता है जो कि एक नये भर्ती अधिकारी से भी लगभग 1500 रुपये कम है।
हालाँकि इस विषय पर अपने समर्थन मे प्रशासन यह कहे कि चूंकि वह अधिकारी है इसीलिये उन्हे अधिक वेतनमान दिया जाता है। तो इसके लिये मैं एक बात की तरफ और उनका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि हमारी सैन्य व्यवस्था मूलतः ब्रिटेन की सैन्य व्यवस्था से प्रेरित है और वहां जब एक अधिकारी भर्ती होता है तो उसका मूल वेतनमान 14348.88 पाउंड्स वार्षिक होता है वहीं जब एक सैनिक भर्ती होता है तो उसका मूल वेतनमान 12571.92 पाउंड्स वार्षिक होता है।
अब यह हमारे प्रशासन को तय करना है कि क्या यह उचित है या नहीं। क्य यह हमारी ज़िम्मेदारी नही बनती कि जो सैनिक अपना सबकुछ छोड़ कर सीमा पर तैनात रहता है और वक़्त पड़ने पर अपनी जान देने में तक नहीं हिचकिचाता उसके साथ इस तरह की स्थिति न उत्पन्न होने दें कि उसे अपने देश की प्रतिबद्धता पर ही अविश्वास होने लगे।

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© Vikas Parihar | vikas