Wednesday, September 26, 2007

गणपती बप्पा मोरेया






कहा जाता है कि एअ तस्वीर 10,000 शब्दों के बराबर होती है।यहां ऊपर जो तस्वीर की श्रंखला है वह अपने आप में सम्पूर्ण है। और इसे अपने अभिव्यक्ति के लिये शब्दों की आवश्यक्ता नहीं है। परंतु गणपति विसर्जन के बाद गणपति की मूर्तियों की यह स्थिति मन में कुछ प्रश्न उठा देती है कि क्या यही है हमारी साधना और हमारी आस्था? क्या हमारी भक्ति सिर्फ गणपति पर्व के उन चंद दिनों तक ही सीमित है? क्या हमारी आस्था सिर्फ भगवान का नाम लेकर वोतों की राजनीति करने और धार्मिक उन्माद फैलाने के लिये ही है?
यदि हम किसी को सुगति प्रदान नहीं कर सकते तो कम से कम उसे दुर्गति तो प्राप्त ना होने दें। मेरी नज़र में ऐसे तथाकथित आस्तिकों एवं साधकों से वह नास्तिक ज़्यदा बेहतर है जो अपनी आस्था का झूठा ढोल नहीं पीटता। अब हमें स्वयं को ही यह निर्णय लेना है कि हम कैसे साधक हैं- Idol, Idea या फिरl Idle

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© Vikas Parihar | vikas